ओले गिरने थे
गिरे
लोट गईं धरती पर
खड़ी फ़सलें
पेड़ों से पत्ते झरे
टूट गए कच्ची मढ़इयों के खपरैल
चार-छह लोग भी मरे
सरकार आख़िर क्या करे ? !
रोक दे पानी का भाप में बदलना
हवा और आंधी का बेरोक-टोक चलना
वायु-धाराओं का बर्फ़ बन कर जमना
ओलों का धरती पर बरसना ? ? ?
असंभव है, श्रीमान !
सरकार के लिए ऐसा कुछ भी करना ...
जिन्हें गिरना था, गिरे
जिन्हें झरना था, झरे
जिन्हें मरना था, मरे
सरकार क्या करे ! ! !
( 1983 )
-सुरेश स्वप्निल
*प्रकाशन: आकंठ, होशंगाबाद एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
गिरे
लोट गईं धरती पर
खड़ी फ़सलें
पेड़ों से पत्ते झरे
टूट गए कच्ची मढ़इयों के खपरैल
चार-छह लोग भी मरे
सरकार आख़िर क्या करे ? !
रोक दे पानी का भाप में बदलना
हवा और आंधी का बेरोक-टोक चलना
वायु-धाराओं का बर्फ़ बन कर जमना
ओलों का धरती पर बरसना ? ? ?
असंभव है, श्रीमान !
सरकार के लिए ऐसा कुछ भी करना ...
जिन्हें गिरना था, गिरे
जिन्हें झरना था, झरे
जिन्हें मरना था, मरे
सरकार क्या करे ! ! !
( 1983 )
-सुरेश स्वप्निल
*प्रकाशन: आकंठ, होशंगाबाद एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
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