लड़कियां सड़क पर पड़ी हैं
बेजान
बेजान लड़कियों की आँखें
सूरज पर टिकी हैं
यद्यपि उनमें तारे नहीं झिलमिलाते
सूज कर खुरदुरे हो गए हैं गाल
कटे-फटे होठों में जमी हुई हैं
सूख कर काले पड़े ख़ून की लकीरें
दूधिया वक्षों के खुले आकाश पर
उभर आई हैं
दांतों और नाखूनों की नीली क़तारें
लड़कियां इतने ख़तरनाक खेल के बारे में
कुछ नहीं जानती थीं
कल वे अपना मैच जीत कर
हैंडबॉल को ग्लोब की तरह उठाए
खिलखिलाती हुई आई थीं
कल ही तो
पिता से पीठ पर थपकी पा कर
वे लजा कर मुस्कुराई थीं
और बड़े भाई के चिढ़ाने पर
रुआंसी हो आई थीं
कल आख़िरी बार
उन्होंने रसोई में माँ का हाथ बंटाया था ....
कल जब आदम ख़ोर अपने असली चेहरों में आए
लड़कियां दुनिया में अपने विश्वास का गीत
गुनगुना रही थीं -
( ..we shall overcome some day
oh deep in my heart, I do believe .....)
ख़ैर , जो होना था हुआ;
आदरणीय प्रधान मंत्री !
शहर में शांति बनाए रखने के लिए
ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है
कि सड़क पर पड़ी बेजान लड़कियों को
ठिकाने लगाने के लिए
कर्फ़्यू लगा दिया जाए ...!
( 1984 )
-सुरेश स्वप्निल
(* पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए दंगों पर एक प्रतिक्रिया।)
प्रकाशन: 'आवेग', रतलाम ; जून, 1985 एवं अन्यत्र कुछ स्थानों पर।
पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
बेजान
बेजान लड़कियों की आँखें
सूरज पर टिकी हैं
यद्यपि उनमें तारे नहीं झिलमिलाते
सूज कर खुरदुरे हो गए हैं गाल
कटे-फटे होठों में जमी हुई हैं
सूख कर काले पड़े ख़ून की लकीरें
दूधिया वक्षों के खुले आकाश पर
उभर आई हैं
दांतों और नाखूनों की नीली क़तारें
लड़कियां इतने ख़तरनाक खेल के बारे में
कुछ नहीं जानती थीं
कल वे अपना मैच जीत कर
हैंडबॉल को ग्लोब की तरह उठाए
खिलखिलाती हुई आई थीं
कल ही तो
पिता से पीठ पर थपकी पा कर
वे लजा कर मुस्कुराई थीं
और बड़े भाई के चिढ़ाने पर
रुआंसी हो आई थीं
कल आख़िरी बार
उन्होंने रसोई में माँ का हाथ बंटाया था ....
कल जब आदम ख़ोर अपने असली चेहरों में आए
लड़कियां दुनिया में अपने विश्वास का गीत
गुनगुना रही थीं -
( ..we shall overcome some day
oh deep in my heart, I do believe .....)
ख़ैर , जो होना था हुआ;
आदरणीय प्रधान मंत्री !
शहर में शांति बनाए रखने के लिए
ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है
कि सड़क पर पड़ी बेजान लड़कियों को
ठिकाने लगाने के लिए
कर्फ़्यू लगा दिया जाए ...!
( 1984 )
-सुरेश स्वप्निल
(* पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए दंगों पर एक प्रतिक्रिया।)
प्रकाशन: 'आवेग', रतलाम ; जून, 1985 एवं अन्यत्र कुछ स्थानों पर।
पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
1 टिप्पणी:
आतंकवाद, कर्फ्यू और दंगो के पीछे का सच सिर्फ वही जान सकता है जिस ने इसे भोग हो ...जैसे की मैं
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