शब्द बचे ही कहां हैं
अब गांठ में
कि ख़र्च कर दिए जाएं
कविताई में !
बहुत मुश्किल से सहेजी थी
यह पूंजी पुरखों ने
और हमारे समय में
पता नहीं कहां-कहां से चले आए
इसे लूटने वाले …
और हमारी पीढ़ी इतनी कृतघ्न
कि ज़रा-से प्रलोभन पर
बिकते रहे, बेचते रहे अपनी नैतिकता
ईमानदारी, संस्कार, विवेक…
किसी ने नहीं सोचा कभी
कि क्या देंगे विरासत में
अपने बाल-बच्चों को
यदि शब्द भी नहीं हाथ में !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
…
अब गांठ में
कि ख़र्च कर दिए जाएं
कविताई में !
बहुत मुश्किल से सहेजी थी
यह पूंजी पुरखों ने
और हमारे समय में
पता नहीं कहां-कहां से चले आए
इसे लूटने वाले …
और हमारी पीढ़ी इतनी कृतघ्न
कि ज़रा-से प्रलोभन पर
बिकते रहे, बेचते रहे अपनी नैतिकता
ईमानदारी, संस्कार, विवेक…
किसी ने नहीं सोचा कभी
कि क्या देंगे विरासत में
अपने बाल-बच्चों को
यदि शब्द भी नहीं हाथ में !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
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