एक
रात-दिन चल रहे हैं
राहत और बचाव के प्रयास
उड़ रहे हैं हेलिकॉप्टर
भोजन और पानी के पैकेट
गिराते हुए
लाशों के ढेरों पर…
जीवित बचे हुए
भटक रहे हैं
अबूझ जंगलों में
जीवन और मृत्यु दोनों को
छलते हुए ....!
पता नहीं
पहुंच भी पाएंगे
या नहीं
राहत शिविरों तक !
दो
दिल्ली में सब के सब
चिंता-मग्न हैं
बाढ़ से निबटने के तरीक़े
ढूंढने में
केदारनाथ में गिद्ध मंडरा रहे हैं
नई-नई लाशों के प्रकट होने की
प्रतीक्षा में !
तीन
कौन कह सकता है कि कल गंगा
प्रतिगामिनी हो कर
रायसीना हिल्स और लुट्येंस ज़ोन तक
नहीं पहुंचेगी ?
कौन कह सकता है कि दिल्ली
नहीं उजड़ेगी फिर से
दस से अधिक तीव्रता के
भूकंप से ?
क्षण-क्षण मृत्यु की ओर
बढ़ती हुई
राजधानी के लोग
इतने निश्चिंत कैसे हो सकते हैं
उत्तराखंड की हालत
देखने के बाद ?
चार
देखते-देखते
श्मशान में बदल गए
चार सौ गांव
देखते-देखते
मृत्यु का ग्रास बन गए
हज़ारों जीवित मनुष्य
पशु-पक्षी और पेड़-पौधे
निरंतर चेतावनियों के बावजूद ....
शर्म से मरे नहीं अब तक
बाढ़ को
बस्तियों तक
लाने वाले !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
2 टिप्पणियां:
ये दर्द असहनीय है
मर्मस्पर्शी ...
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