जहां तंत्र
दिन-प्रतिदिन षड्यंत्र रचता हो
लोक के विरुद्ध
वहां
मौन कोई विकल्प नहीं !
जहां लोक का अस्तित्व
कीड़ों-मकोड़ों से अधिक नहीं
और तंत्र तैनात हो
अपनी तमाम सशस्त्र सेनाओं के साथ
धरती के चप्पे-चप्पे पर
जहां लोक को हिंस्र पशुओं की भांति
घर-घर, गली-गली
और वनों-कंदराओं से
बिलों से खींच-खींच कर
मृत्यु के हवाले किया जाने लगे
जहां तंत्र की निरंकुशता के विरुद्ध
आवाज़ उठाना
'राज-द्रोह' घोषित कर दिया जाए
वहां मौन कोई विकल्प कैसे हो सकता है भला ?
युद्ध तो युद्ध है
जब एक पक्ष संवाद के लिए
चुनता हो बंदूक़
वहां दूसरे पक्ष के लिए
मौन कोई विकल्प नहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
दिन-प्रतिदिन षड्यंत्र रचता हो
लोक के विरुद्ध
वहां
मौन कोई विकल्प नहीं !
जहां लोक का अस्तित्व
कीड़ों-मकोड़ों से अधिक नहीं
और तंत्र तैनात हो
अपनी तमाम सशस्त्र सेनाओं के साथ
धरती के चप्पे-चप्पे पर
जहां लोक को हिंस्र पशुओं की भांति
घर-घर, गली-गली
और वनों-कंदराओं से
बिलों से खींच-खींच कर
मृत्यु के हवाले किया जाने लगे
जहां तंत्र की निरंकुशता के विरुद्ध
आवाज़ उठाना
'राज-द्रोह' घोषित कर दिया जाए
वहां मौन कोई विकल्प कैसे हो सकता है भला ?
युद्ध तो युद्ध है
जब एक पक्ष संवाद के लिए
चुनता हो बंदूक़
वहां दूसरे पक्ष के लिए
मौन कोई विकल्प नहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.
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