सदियों से
एक ही खेल चल रहा है
निरंतर ...
जो डरता है
उसे इतना डराओ
कि डर के मारे आत्म-हत्या कर ले
जिसे दबाया जा सकता है
उसे इतना दबाओ
कि उसका स्वाभिमान
चूर-चूर हो जाए
जो असहाय है
उसे घेर लो हर ओर से
और उसकी ज़ुबान काट लो
कि पुकार भी न सके किसी को
मदद के लिए !
जो डरता नहीं है किसी से
जिसे दबाया नहीं जा सकता किसी भी तरह
जो इतना असहाय नहीं कि प्रतिकार न कर सके
उसे खींच कर बाहर ले आओ घर से
और उसे
बाज़ार के हवाले कर दो !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम, मौलिक / अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
एक ही खेल चल रहा है
निरंतर ...
जो डरता है
उसे इतना डराओ
कि डर के मारे आत्म-हत्या कर ले
जिसे दबाया जा सकता है
उसे इतना दबाओ
कि उसका स्वाभिमान
चूर-चूर हो जाए
जो असहाय है
उसे घेर लो हर ओर से
और उसकी ज़ुबान काट लो
कि पुकार भी न सके किसी को
मदद के लिए !
जो डरता नहीं है किसी से
जिसे दबाया नहीं जा सकता किसी भी तरह
जो इतना असहाय नहीं कि प्रतिकार न कर सके
उसे खींच कर बाहर ले आओ घर से
और उसे
बाज़ार के हवाले कर दो !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम, मौलिक / अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
2 टिप्पणियां:
बेहतर है...
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,आभार.
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