राजा नहीं था
थी सिर्फ़ रानी
यहाँ से शुरू होती है कहानी।
मेरे मुन्ने!
हूँका देते जाना तुम
ताकि जागते हुए
पूरी कहानी सुन सको।
बहुत शानदार थे
रानी के महल, रानी के बाग़
रानी की फ़ौजें, रानी के दास
घोड़े-घोड़ियां, सजी हुई बग्घियाँ
मोतिया हाथी और उनके दांत।
रानी सुखी थी , राज्य निष्कंटक
क्योंकि प्रजा
भले ही भूखी थी, नंगी थी, बेबस, लाचार थी
थी गूंगी-बहरी, अपंग।
उगता था रोज़ सुबह
काला सूरज
काले दिन
पलते थे पी कर ज़हर।
रानी ने दे दी थी छूट
गली-गली फिरते यमदूत
करते थे बलात्कार
पीते थे ख़ून
भूखी-नंगी, बेबस, लाचार
जनता का खाते थे मांस
चमकीली वर्दियों पर
बढ़ते थे फूल
हर नए क़त्ल के बाद।
गूंगे-बहरे, अपंग लोग
किससे करते फ़रियाद ?
रानी ने कानों पर डाल लिए परदे
आँखों पर बांध ली पट्टियां
न्याय-व्यवस्था की
बिखर गईं धज्जियां
कोई नहीं सुनता था
मौन प्रतिरोध की आवाज़
कोई नहीं देखता
आँखों से छलकते
पीड़ा के एहसास!
धीरे-धीरे
मरते गए लोग
मर गया शहर
काले दिन और हुए लम्बे
पी-पी कर
मुर्दों के घावों से रिसता ज़हर !
बाग़ों में फूलों ने
छोड़ दिया खिलना
शाख़ों के पत्ते भी
भूल गए हिलना
नदियां-सरोवर
सभी गए सूख
काले यमदूतों की
मिटी नहीं भूख
आपस में लड़-लड़ कर
मरते रहे
चींथते बोटियां
एक-दूसरे की ही
अपनी मनमानी करते रहे।
एक-एक कर ख़त्म हुए
रानी के वफ़ादार
मंत्री, सैनिक, सिपहसालार
अंततः
सारे शहर में
रानी ही रह गई अकेली !
सूने बाज़ारों में
सड़ती थी लाशें
नुचे-खुचे कंकालों पर
गिद्ध मंडराते थे
ख़ून-सने,
ख़ाली मैदानों में।
तब एक दिन -
सर्वशक्तिमान समय के बलिष्ठ हाथों ने
रानी की आँखों से खींच लीं पट्टियां
और भर दिए उनमें
आतंक, अत्याचार, पीड़ा, दमन
और मौत के घिनौने इतिहास !
रानी की बेशर्म आँखें
झुकी नहीं नीचे
करती रहीं अट्टहास !
काले इतिहास की काली निशानी
रानी! रानी ! सिर्फ़ रानी !
मेरे प्यारे बेटे !
ख़त्म हो गई कहानी।
अब तुम्हें हूँका देने की
ज़रूरत नहीं,
सो जाओ।
कल जब तुम सो कर उठो,
चमकते सूरज की
किरणें सहेजना
और अपनी संतानों को सुनाना
अंधेरों से लड़-लड़ कर छीने हुए
मोती-से उजले दिनों की कहानी
जिसमें हों खिले हुए फूल,
मुस्काते चेहरे
ख़ुशियों के गीत
और न हों
रानी की फ़ौजें , न रानी !
( 1977 )
-सुरेश स्वप्निल
[ यह कविता स्वाभाविकतः, दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री इंदिरा गाँधी की आपातकाल के बाद
हुए आम चुनाव में पराजय के सन्दर्भ में लिखी गई थी।]
प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल; 1977
थी सिर्फ़ रानी
यहाँ से शुरू होती है कहानी।
मेरे मुन्ने!
हूँका देते जाना तुम
ताकि जागते हुए
पूरी कहानी सुन सको।
बहुत शानदार थे
रानी के महल, रानी के बाग़
रानी की फ़ौजें, रानी के दास
घोड़े-घोड़ियां, सजी हुई बग्घियाँ
मोतिया हाथी और उनके दांत।
रानी सुखी थी , राज्य निष्कंटक
क्योंकि प्रजा
भले ही भूखी थी, नंगी थी, बेबस, लाचार थी
थी गूंगी-बहरी, अपंग।
उगता था रोज़ सुबह
काला सूरज
काले दिन
पलते थे पी कर ज़हर।
रानी ने दे दी थी छूट
गली-गली फिरते यमदूत
करते थे बलात्कार
पीते थे ख़ून
भूखी-नंगी, बेबस, लाचार
जनता का खाते थे मांस
चमकीली वर्दियों पर
बढ़ते थे फूल
हर नए क़त्ल के बाद।
गूंगे-बहरे, अपंग लोग
किससे करते फ़रियाद ?
रानी ने कानों पर डाल लिए परदे
आँखों पर बांध ली पट्टियां
न्याय-व्यवस्था की
बिखर गईं धज्जियां
कोई नहीं सुनता था
मौन प्रतिरोध की आवाज़
कोई नहीं देखता
आँखों से छलकते
पीड़ा के एहसास!
धीरे-धीरे
मरते गए लोग
मर गया शहर
काले दिन और हुए लम्बे
पी-पी कर
मुर्दों के घावों से रिसता ज़हर !
बाग़ों में फूलों ने
छोड़ दिया खिलना
शाख़ों के पत्ते भी
भूल गए हिलना
नदियां-सरोवर
सभी गए सूख
काले यमदूतों की
मिटी नहीं भूख
आपस में लड़-लड़ कर
मरते रहे
चींथते बोटियां
एक-दूसरे की ही
अपनी मनमानी करते रहे।
एक-एक कर ख़त्म हुए
रानी के वफ़ादार
मंत्री, सैनिक, सिपहसालार
अंततः
सारे शहर में
रानी ही रह गई अकेली !
सूने बाज़ारों में
सड़ती थी लाशें
नुचे-खुचे कंकालों पर
गिद्ध मंडराते थे
ख़ून-सने,
ख़ाली मैदानों में।
तब एक दिन -
सर्वशक्तिमान समय के बलिष्ठ हाथों ने
रानी की आँखों से खींच लीं पट्टियां
और भर दिए उनमें
आतंक, अत्याचार, पीड़ा, दमन
और मौत के घिनौने इतिहास !
रानी की बेशर्म आँखें
झुकी नहीं नीचे
करती रहीं अट्टहास !
काले इतिहास की काली निशानी
रानी! रानी ! सिर्फ़ रानी !
मेरे प्यारे बेटे !
ख़त्म हो गई कहानी।
अब तुम्हें हूँका देने की
ज़रूरत नहीं,
सो जाओ।
कल जब तुम सो कर उठो,
चमकते सूरज की
किरणें सहेजना
और अपनी संतानों को सुनाना
अंधेरों से लड़-लड़ कर छीने हुए
मोती-से उजले दिनों की कहानी
जिसमें हों खिले हुए फूल,
मुस्काते चेहरे
ख़ुशियों के गीत
और न हों
रानी की फ़ौजें , न रानी !
( 1977 )
-सुरेश स्वप्निल
[ यह कविता स्वाभाविकतः, दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री इंदिरा गाँधी की आपातकाल के बाद
हुए आम चुनाव में पराजय के सन्दर्भ में लिखी गई थी।]
प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल; 1977
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