भीतर तक छिले हुए लोग
घास छीलते हैं
बोझ उठाते हैं
सड़कें बनाते हैं
पत्थर तराशते हैं
भवन उठाते हैं
बीड़ियाँ बनाते हैं
बांध बनाते हैं
नहरें खोदते हैं
फसलें काटते हैं
तेंदू-पत्ता बीनते हैं
ठेकेदारों की गालियाँ खाते हैं
सुबह-शाम
शाम-सुबह
जनवरी-दिसंबर
दिसंबर-जनवरी
चैत-फागुन
फागुन-चैत ...
उनका मरा हुआ ज़मीर
कुछ नहीं कहता
उनकी कीचड़-सनी आँखें
कुछ नहीं देखतीं
उनके काम में लगे हाथ
खुरपी, हँसिया, सब्बल, हथौड़ा, छैनी, रंदा, तगाड़ी उठाते हैं
उनके अधनंगे शरीर
थकते जाने की अनिवार्य,
अनवरत प्रक्रिया से गुज़रते हैं
सारा दिन
शाम को खुले मैदान में
लकड़ियाँ बीन कर चूल्हे जलाते हैं
और आग के चारों तरफ़
हाथों में हाथ डाल कर
और क़दम से क़दम मिला कर
एक ताल में नाचते हैं
और रसभीने गीत गाते हैं
फिर कच्ची दारू अपनी आत्मा तक उतार कर
तैयार होते हैं
सोने के लिए
भीतर तक छिले हुए लोग
अपने औज़ारों का आस्त्रिक प्रयोग नहीं जानते
अपने गीतों के क्रांतिकारी अर्थ नहीं समझते
अपने अधनंगे शरीरों में सोई शक्ति
और ठेकेदारों की नपुंसकता को नहीं तौलते
दरअसल छीले जाने के ज़ख्म तभी तक टीसते हैं
जब तक वे हरे होते हैं
फिर धीरे-धीरे
उन पर पपड़ी जम जाती है
पपड़ी हट भी जाती है
जब चोट पर चोट होती है
और तब
मरता क्या-क्या नहीं करता !
( 1985 )
-सुरेश स्वप्निल
* अप्रकाशित/अप्रसारित , प्रकाशन हेतु उपलब्ध
घास छीलते हैं
बोझ उठाते हैं
सड़कें बनाते हैं
पत्थर तराशते हैं
भवन उठाते हैं
बीड़ियाँ बनाते हैं
बांध बनाते हैं
नहरें खोदते हैं
फसलें काटते हैं
तेंदू-पत्ता बीनते हैं
ठेकेदारों की गालियाँ खाते हैं
सुबह-शाम
शाम-सुबह
जनवरी-दिसंबर
दिसंबर-जनवरी
चैत-फागुन
फागुन-चैत ...
उनका मरा हुआ ज़मीर
कुछ नहीं कहता
उनकी कीचड़-सनी आँखें
कुछ नहीं देखतीं
उनके काम में लगे हाथ
खुरपी, हँसिया, सब्बल, हथौड़ा, छैनी, रंदा, तगाड़ी उठाते हैं
उनके अधनंगे शरीर
थकते जाने की अनिवार्य,
अनवरत प्रक्रिया से गुज़रते हैं
सारा दिन
शाम को खुले मैदान में
लकड़ियाँ बीन कर चूल्हे जलाते हैं
और आग के चारों तरफ़
हाथों में हाथ डाल कर
और क़दम से क़दम मिला कर
एक ताल में नाचते हैं
और रसभीने गीत गाते हैं
फिर कच्ची दारू अपनी आत्मा तक उतार कर
तैयार होते हैं
सोने के लिए
भीतर तक छिले हुए लोग
अपने औज़ारों का आस्त्रिक प्रयोग नहीं जानते
अपने गीतों के क्रांतिकारी अर्थ नहीं समझते
अपने अधनंगे शरीरों में सोई शक्ति
और ठेकेदारों की नपुंसकता को नहीं तौलते
दरअसल छीले जाने के ज़ख्म तभी तक टीसते हैं
जब तक वे हरे होते हैं
फिर धीरे-धीरे
उन पर पपड़ी जम जाती है
पपड़ी हट भी जाती है
जब चोट पर चोट होती है
और तब
मरता क्या-क्या नहीं करता !
( 1985 )
-सुरेश स्वप्निल
* अप्रकाशित/अप्रसारित , प्रकाशन हेतु उपलब्ध
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