गत दिनों किसी एक रात को
जिसकी तारीख़ मुझे याद नहीं
मैंने एक सपना देखा।
सपना देखा कि हवा
बाज़ार से ग़ायब है
हवा सारी दुनिया से ग़ायब है
हवा किसी मोल पर नहीं मिलती
हवा किसी स्टॉक में नहीं है
न काले, न उजले ।
हवा की ऐसी तंगी हमने कभी नहीं देखी थी
हम अपना सब-कुछ लुटा देने को
तैयार थे
महज़ चंद सांसों-भर हवा के लिए
हमने अपनी तिजोरियां तोड़ीं
और सारे गहने निकाले
बैंकों से सारा पैसा भी
विदेशी साड़ियों और घड़ियों के भंडार भी
और सच्चे-झूठे राशन-कार्ड भी।
ग़रज़ यह कि हम अपना सब-कुछ
चौराहों पर ले आए
और सरकारों से मांग की: "हमारा सब-कुछ ले लो
और हमें दे दो
हमें दे दो
हवा, सिर्फ़ हवा!"
फिर सबने देखा,
सरकारें भी
राज-काज छोड़ कर भीड़ में मिल गई थीं
हम बेबस थे
सब के सब
सहनशील शिक्षक और चाक़ू तानने वाले छात्र
डॉक्टर, इंजीनियर और ठेकेदार
अपराधी, वकील और न्यायाधीश
नेता, मंत्री और उनके दलाल
सभी एक आसमान के नीचे
एक मुट्ठी हवा के तलबगार
और हवा, किसी के भी पास नहीं।
हम सबका दम घुटता जा रहा था
और चीख़ें गूंज रही थीं
आर्त्त , विवश, भयाक्रांत इंसानों की
मृत्यु हमारे सामने स्पष्ट थी
तभी अख़बार वाले की आवाज़ ने
खिड़की पर दस्तक दी
शायद, सुबह हो चुकी थी
दरवाज़े की दरार से अन्दर आया अख़बार
आँखों के आगे फैले समाचार
" तीन दिन में तीसरी सरकार का पतन "
"सोने-चांदी के भाव नई ऊंचाई पर "
मैंने अपने-आप को टटोला
सांस चल रही थी
और मैं- ज़िंदा था !
( 1979 )
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन:' इंदौर बैंक परिवार', 1979, 'अंतर्यात्रा'-1 3, 1983 एवं अन्यत्र।
* पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
जिसकी तारीख़ मुझे याद नहीं
मैंने एक सपना देखा।
सपना देखा कि हवा
बाज़ार से ग़ायब है
हवा सारी दुनिया से ग़ायब है
हवा किसी मोल पर नहीं मिलती
हवा किसी स्टॉक में नहीं है
न काले, न उजले ।
हवा की ऐसी तंगी हमने कभी नहीं देखी थी
हम अपना सब-कुछ लुटा देने को
तैयार थे
महज़ चंद सांसों-भर हवा के लिए
हमने अपनी तिजोरियां तोड़ीं
और सारे गहने निकाले
बैंकों से सारा पैसा भी
विदेशी साड़ियों और घड़ियों के भंडार भी
और सच्चे-झूठे राशन-कार्ड भी।
ग़रज़ यह कि हम अपना सब-कुछ
चौराहों पर ले आए
और सरकारों से मांग की: "हमारा सब-कुछ ले लो
और हमें दे दो
हमें दे दो
हवा, सिर्फ़ हवा!"
फिर सबने देखा,
सरकारें भी
राज-काज छोड़ कर भीड़ में मिल गई थीं
हम बेबस थे
सब के सब
सहनशील शिक्षक और चाक़ू तानने वाले छात्र
डॉक्टर, इंजीनियर और ठेकेदार
अपराधी, वकील और न्यायाधीश
नेता, मंत्री और उनके दलाल
सभी एक आसमान के नीचे
एक मुट्ठी हवा के तलबगार
और हवा, किसी के भी पास नहीं।
हम सबका दम घुटता जा रहा था
और चीख़ें गूंज रही थीं
आर्त्त , विवश, भयाक्रांत इंसानों की
मृत्यु हमारे सामने स्पष्ट थी
तभी अख़बार वाले की आवाज़ ने
खिड़की पर दस्तक दी
शायद, सुबह हो चुकी थी
दरवाज़े की दरार से अन्दर आया अख़बार
आँखों के आगे फैले समाचार
" तीन दिन में तीसरी सरकार का पतन "
"सोने-चांदी के भाव नई ऊंचाई पर "
मैंने अपने-आप को टटोला
सांस चल रही थी
और मैं- ज़िंदा था !
( 1979 )
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन:' इंदौर बैंक परिवार', 1979, 'अंतर्यात्रा'-1 3, 1983 एवं अन्यत्र।
* पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
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