कभी-कभी कितना सहज लगता है
धूप का तीख़ा पन
और घूमते फिरना
नंगे पांव
नंगे सिर ...
सड़क बेहद लम्बी है
पेड़ बहुत थोड़े
और फिर जगह-जगह रुक कर
क्यों बिगाड़ें
पांवों की आदत ?
छांव महज़ धोखा है
धूप एक कड़वा सच
न राह आसान है, न मंज़िल !
जानी-पहचानी आवाज़ें
सड़क, गली, आंगन , खिडकियां पार कर
घुस आई हैं कमरे में
आइसक्रीम बेचने वाले आए हैं
पूछो , किसी को पानी चाहिए ?
( 1982 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'आकंठ', होशंगाबाद एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
धूप का तीख़ा पन
और घूमते फिरना
नंगे पांव
नंगे सिर ...
सड़क बेहद लम्बी है
पेड़ बहुत थोड़े
और फिर जगह-जगह रुक कर
क्यों बिगाड़ें
पांवों की आदत ?
छांव महज़ धोखा है
धूप एक कड़वा सच
न राह आसान है, न मंज़िल !
जानी-पहचानी आवाज़ें
सड़क, गली, आंगन , खिडकियां पार कर
घुस आई हैं कमरे में
आइसक्रीम बेचने वाले आए हैं
पूछो , किसी को पानी चाहिए ?
( 1982 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'आकंठ', होशंगाबाद एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें