लड़की उठती है मुंह-अँधेरे
आँखों पर पानी के छींटे मार कर
जूझती है कुछ देर
चूल्हे और गीली लकड़ियों से
फिर आ बैठती है कारचोब पर
रीढ़ की हड्डी में दर्द
और आँखों में जलन लिए
दो खड़ी और दो आड़ी लकड़ियों के अड्डे पर
नायलॉन के धागों से
तानती है नीले मख़मल का आकाश
और उतारती है उस पर
ट्रेसिंग पेपर के छेदों में से
उड़ते हुए पक्षियों के आकार
भोर की पहली किरण के उजाले में
सुई में धागा पिरोती है
और आले से पोतों की तश्तरी उठा कर
घुटने मोड़ कर बैठ जाती है
लड़की पोत दर पोत
मख़मल पर टंकती चली जाती है
धूप
टाट के परदे से निकल कर
पोतों की तश्तरी से टकराती है
और पोतों के रंग
सारे कमरे में बिखर जाते हैं ...
लड़की चाहे तो इस वक़्त
सपने देख सकती है।
लेकिन उसकी पतली उंगलियां
रुकना नहीं जानतीं
और न आँखें बहकना
हवा की तरह सरसराती उंगलियों के बीच से
एक शाहीन सर उठाता है
और अपने पंख पसार कर
अड्डे पर बैठ जाता है
लड़की उसके पंखों को छू-छू कर देखती है
और उन पर बैठ कर उड़ जाना चाहती है
बदनसीबी, क़र्ज़ और जहेज़ के कमरों की
दीवारें तोड़ कर
लेकिन कारख़ानेदार का दूकानी चेहरा
लड़की पर हावी होता चला जाता है
और अपनी झुर्रियों से उसके चारों ओर
जाल बुन देता है
लड़की अड्डे को अपनी बांहों में समेट कर
छटपटाती है
और शाहीन
स्तब्ध हो कर लड़की को देखता है
तभी कारख़ानेदार का बालों भरा हाथ
जाल के भीतर आता है
और शाहीन को अड्डे से उतार कर
अपने कंधे पर डाल कर चल देता है
लड़की जब होश में आती है
तो शाहीन के पंख नहीं
उसकी हथेलियों में फड़फड़ाते हैं
हरे-हरे दो नोट ....
कारख़ानेदार
लड़की के ज़ेहन में जब-जब उभरता है
उसकी आँखें बहकती हैं
और सुई उंगली में धंसती चली जाती है
लड़की कांपते हुए हाथ से सुई निकालती है
और सिर झटक कर
दोबारा काम में जुट जाती है
उसकी उंगली से रिसता हुआ ख़ून
याक़ूत की तरह
शाहीन के पंखों पर टंकता चला जाता है ....
एक दिन
सूखे हुए ख़ून में दोबारा चमकेगी लाली
कारख़ानेदार के सारे शो-केस
टूट कर बिखर जाएंगे
और लड़की के हाथों से निकले
सारे शाहीन
झुण्ड बना कर वापस लौट आएंगे
वे लड़की कारख़ानेदार का चेहरा
सामने आते ही
टूट पड़ेंगे उस पर
और अपनी चोंचों से
जाल के एक-एक फंदे को
काट डालेंगे
वे कारचोब की पालकी पर
लड़की को बैठाएंगे
और अपने पंखों पर लाद कर
उड़ा ले जाएंगे ....
लड़की बैठी है कारचोब पर
शाहीन के पंखों में पोत भरती हुई।
( 1981 )
-सुरेश स्वप्निल
* अब तक अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध। समुचित पारिश्रमिक अपेक्षित।
आँखों पर पानी के छींटे मार कर
जूझती है कुछ देर
चूल्हे और गीली लकड़ियों से
फिर आ बैठती है कारचोब पर
रीढ़ की हड्डी में दर्द
और आँखों में जलन लिए
दो खड़ी और दो आड़ी लकड़ियों के अड्डे पर
नायलॉन के धागों से
तानती है नीले मख़मल का आकाश
और उतारती है उस पर
ट्रेसिंग पेपर के छेदों में से
उड़ते हुए पक्षियों के आकार
भोर की पहली किरण के उजाले में
सुई में धागा पिरोती है
और आले से पोतों की तश्तरी उठा कर
घुटने मोड़ कर बैठ जाती है
लड़की पोत दर पोत
मख़मल पर टंकती चली जाती है
धूप
टाट के परदे से निकल कर
पोतों की तश्तरी से टकराती है
और पोतों के रंग
सारे कमरे में बिखर जाते हैं ...
लड़की चाहे तो इस वक़्त
सपने देख सकती है।
लेकिन उसकी पतली उंगलियां
रुकना नहीं जानतीं
और न आँखें बहकना
हवा की तरह सरसराती उंगलियों के बीच से
एक शाहीन सर उठाता है
और अपने पंख पसार कर
अड्डे पर बैठ जाता है
लड़की उसके पंखों को छू-छू कर देखती है
और उन पर बैठ कर उड़ जाना चाहती है
बदनसीबी, क़र्ज़ और जहेज़ के कमरों की
दीवारें तोड़ कर
लेकिन कारख़ानेदार का दूकानी चेहरा
लड़की पर हावी होता चला जाता है
और अपनी झुर्रियों से उसके चारों ओर
जाल बुन देता है
लड़की अड्डे को अपनी बांहों में समेट कर
छटपटाती है
और शाहीन
स्तब्ध हो कर लड़की को देखता है
तभी कारख़ानेदार का बालों भरा हाथ
जाल के भीतर आता है
और शाहीन को अड्डे से उतार कर
अपने कंधे पर डाल कर चल देता है
लड़की जब होश में आती है
तो शाहीन के पंख नहीं
उसकी हथेलियों में फड़फड़ाते हैं
हरे-हरे दो नोट ....
कारख़ानेदार
लड़की के ज़ेहन में जब-जब उभरता है
उसकी आँखें बहकती हैं
और सुई उंगली में धंसती चली जाती है
लड़की कांपते हुए हाथ से सुई निकालती है
और सिर झटक कर
दोबारा काम में जुट जाती है
उसकी उंगली से रिसता हुआ ख़ून
याक़ूत की तरह
शाहीन के पंखों पर टंकता चला जाता है ....
एक दिन
सूखे हुए ख़ून में दोबारा चमकेगी लाली
कारख़ानेदार के सारे शो-केस
टूट कर बिखर जाएंगे
और लड़की के हाथों से निकले
सारे शाहीन
झुण्ड बना कर वापस लौट आएंगे
वे लड़की कारख़ानेदार का चेहरा
सामने आते ही
टूट पड़ेंगे उस पर
और अपनी चोंचों से
जाल के एक-एक फंदे को
काट डालेंगे
वे कारचोब की पालकी पर
लड़की को बैठाएंगे
और अपने पंखों पर लाद कर
उड़ा ले जाएंगे ....
लड़की बैठी है कारचोब पर
शाहीन के पंखों में पोत भरती हुई।
( 1981 )
-सुरेश स्वप्निल
* अब तक अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध। समुचित पारिश्रमिक अपेक्षित।
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