लो, वे आ गए
अपनी सेनाएं ले कर
वे जानते हैं
हम कहां-कहां छिप सकते हैं
कौन-कौन से हथियार जुटा सकते हैं
और लड़ सकते हैं कितने दिन
सिर्फ़ यह नहीं जानते वे
कि हम मर भी जाएं तो बहुत-कुछ
छोड़ जाएंगे
आगामी पीढ़ियों के लिए
एक जलती आग
जो बहुत देर तक ज़िंदा रहेगी
कदाचित
अगली कई सदियों तक
और अपने पुरखों की कहानियां
जो चैन से नहीं जीने देंगी
न हमारे वंशजों को
न उनके !
विडम्बना यह है
कि शत्रु वे नहीं हैं हमारे
वे तो मोहरे हैं उन हाथों के
जो ख़रीदना जानते हैं
सब-कुछ
अपनी पूंजी के दम पर
यहां तक कि
सरकारों के ईमान भी !
यह व्यापार कौन-सा है
जो बदल देता है
मानव-रक्त का रंग ?
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
...
अपनी सेनाएं ले कर
वे जानते हैं
हम कहां-कहां छिप सकते हैं
कौन-कौन से हथियार जुटा सकते हैं
और लड़ सकते हैं कितने दिन
सिर्फ़ यह नहीं जानते वे
कि हम मर भी जाएं तो बहुत-कुछ
छोड़ जाएंगे
आगामी पीढ़ियों के लिए
एक जलती आग
जो बहुत देर तक ज़िंदा रहेगी
कदाचित
अगली कई सदियों तक
और अपने पुरखों की कहानियां
जो चैन से नहीं जीने देंगी
न हमारे वंशजों को
न उनके !
विडम्बना यह है
कि शत्रु वे नहीं हैं हमारे
वे तो मोहरे हैं उन हाथों के
जो ख़रीदना जानते हैं
सब-कुछ
अपनी पूंजी के दम पर
यहां तक कि
सरकारों के ईमान भी !
यह व्यापार कौन-सा है
जो बदल देता है
मानव-रक्त का रंग ?
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
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