शत्रु की पताका
फहरा रही है
हस्तिनापुर पर !
हे पार्थ !
कौन था तुम्हारा सारथि
किसने की थीं
व्यूह-रचनाएं
कहां खो गया
तुम्हारे योद्धाओं का साहस
उनका आत्म-बल ?
न, पार्थ !
पराजय के दंश से बड़ा
कोई घाव नहीं होता
कोई अपमान बड़ा नहीं होता
पराजय के अपमान से
इतनी ग्लानि, इतनी पीड़ा
सह सकोगे तुम ?
प्रतिशोध की ज्वाला
बुझ तो नहीं गई
तुम्हारे ह्रदय में ?
सीखना ही होगा तुम्हें
पराजय को विजय में बदलना
करनी ही होंगी पूरी
अपेक्षाएं
दीन-हीन नागरिकों की
फहरानी ही होगी फिर से
अपनी पताका
हस्तिनापुर पर ...
अबकी बार
चुन लेना कोई और सारथि !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
...
फहरा रही है
हस्तिनापुर पर !
हे पार्थ !
कौन था तुम्हारा सारथि
किसने की थीं
व्यूह-रचनाएं
कहां खो गया
तुम्हारे योद्धाओं का साहस
उनका आत्म-बल ?
न, पार्थ !
पराजय के दंश से बड़ा
कोई घाव नहीं होता
कोई अपमान बड़ा नहीं होता
पराजय के अपमान से
इतनी ग्लानि, इतनी पीड़ा
सह सकोगे तुम ?
प्रतिशोध की ज्वाला
बुझ तो नहीं गई
तुम्हारे ह्रदय में ?
सीखना ही होगा तुम्हें
पराजय को विजय में बदलना
करनी ही होंगी पूरी
अपेक्षाएं
दीन-हीन नागरिकों की
फहरानी ही होगी फिर से
अपनी पताका
हस्तिनापुर पर ...
अबकी बार
चुन लेना कोई और सारथि !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
...
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