आखेटकों के विरुद्ध
सागवानी
सन्नाटे को तोड़ कर
गूंजती हैं जब बंदूकें
गिर पड़ता है हहराकर
कोई बेक़सूर वनचर,
आखेटक तब
करते हैं अट्टहास
बंदूकों की नलियों से
निकलते धुएँ को
फूँक मार कर
इत्मीनान से।
ख़ुश होते हैं
जीने का हक़ छीन कर।
परंतु ...
देख रहा हूँ मैं
अब जंगल में
माहौल को बदलते,
वनचरों को
अपने सींग पैने करते ...
हाँ, देख रहा हूँ मैं
उन्हें एकजुट होते
आखेटकों के विरुद्ध !
-लक्ष्मी नारायण पयोधि
*यह कविता श्री पयोधि के 'सोमारू' शीर्षक से, 1997 में राष्ट्रीय प्रकाशन मंदिर, भोपाल द्वारा प्रकाशित
कविता-संग्रह से, सादर, साभार।
1 टिप्पणी:
आदमियों की बस्ती ...सच में जंगल में बदलती जा रही है ..
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