हम/ चल रहे हैं
चलते जा रहे हैं
बावजूद इसके/ कि
हमारे शरीर थक गए हैं
और मन/ हार गए हैं !
घिसटना/ लंगड़ा कर चलना
या/ चलने की सिर्फ़-कोशिश भर कर पाना
क्या सचमुच/ कोई अर्थ रखता है ?
शायद हां .../ या शायद नहीं ...
यह सोचना/ या सोचने की इच्छा तक/ किए बिना
हम चल रहे हैं/ चलते जा रहे हैं/ बावजूद इसके/ कि
हमारे शरीर थक गए हैं/ और मन/ हार गए हैं !
शायद/ पाण्डवों का महाप्रस्थान भी/ कुछ ऐसा ही रहा होगा !
भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव/ और अबला द्रौपदी
सबके-सब/ मार्ग-पतित
और वह एक मात्र स्वर्गारोही - युधिष्ठिर !
और उसका सहयात्री वह श्वान !
अपने आपको/ युधिष्ठिर ( या कहो कि उसका श्वान ही )
सिद्ध करने के प्रयास में
ख़ून-रिसते तलुए/ और कांटे-चुभे पांव लिए
हम चल रहे हैं/ चलते जा रहे हैं/ बावजूद इसके/ कि /
हमारे शरीर थक गए हैं/ और मन ....हार गए हैं !
( 1976 )
-सुरेश स्वप्निल
*प्रकाशन: 'देशबंधु', भोपाल, 1976 एवं 'अंतर्यात्रा', 1983। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
चलते जा रहे हैं
बावजूद इसके/ कि
हमारे शरीर थक गए हैं
और मन/ हार गए हैं !
घिसटना/ लंगड़ा कर चलना
या/ चलने की सिर्फ़-कोशिश भर कर पाना
क्या सचमुच/ कोई अर्थ रखता है ?
शायद हां .../ या शायद नहीं ...
यह सोचना/ या सोचने की इच्छा तक/ किए बिना
हम चल रहे हैं/ चलते जा रहे हैं/ बावजूद इसके/ कि
हमारे शरीर थक गए हैं/ और मन/ हार गए हैं !
शायद/ पाण्डवों का महाप्रस्थान भी/ कुछ ऐसा ही रहा होगा !
भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव/ और अबला द्रौपदी
सबके-सब/ मार्ग-पतित
और वह एक मात्र स्वर्गारोही - युधिष्ठिर !
और उसका सहयात्री वह श्वान !
अपने आपको/ युधिष्ठिर ( या कहो कि उसका श्वान ही )
सिद्ध करने के प्रयास में
ख़ून-रिसते तलुए/ और कांटे-चुभे पांव लिए
हम चल रहे हैं/ चलते जा रहे हैं/ बावजूद इसके/ कि /
हमारे शरीर थक गए हैं/ और मन ....हार गए हैं !
( 1976 )
-सुरेश स्वप्निल
*प्रकाशन: 'देशबंधु', भोपाल, 1976 एवं 'अंतर्यात्रा', 1983। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
1 टिप्पणी:
जब तक है जान बढते रहें...बेहतरीन प्रस्तुति.
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