घर से दूर
कौन जानता है मुझे
पर फिर भी
जाऊंगा जब इस शहर से
कुछ हैं
जो मुझे याद करेंगे
एक आम का पेड़
उस पर रहने वाली तीन चिड़ियाँ
और उनके दो छोटे बच्चे
घर में
घर की शक्ल का आकाश
छत के दरवाज़े से
टकराने वाली हवा
बार-बार खटकाएगी कुण्डी
इक खिड़की
जो बेवजह खुलती है
सामने की छत पर, वो
कुछ तारे
जिनकी शक्लें भले ही हों एक-सी
पर मैं उन्हें नाम से जानता हूँ
दरवाज़े के पास की ज़मीन
बजा कर घण्टी
रस्ता देखेगी
पर छत, मेरे बिना
नीचे कहाँ आ पाएगी
मेरे घर से दूर
रहने पर
इन सबको रंज होगा
याद करेंगे मुझे
ये सब मिल कर
मुश्किल तो मुझे होगी
जब करनी पड़ेगी
मुझे याद इन सबकी
अकेले ही !
-सुशील शुक्ल
* यह कविता 2009 में प्रकाशित 'Original Edition' से, सा-स्नेह, साभार।
1 टिप्पणी:
यादों में यादे अभी भी बाकि हैं
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