1.
ढूंढ कर लाए तो
जवाब कोई !
महका-महका सा है चमन
शायद
छू गए वो खिला गुलाब कोई !
2.
देखो
कितने शरीर हैं बादल
उसने खोली कहीं
ज़ुल्फ़ें अपनी
जा के टकरा गए वहीं बादल !
3.
ख़त पे औरों का नाम
लिक्खा है
कितनी मासूमियत से
आख़िर में
उसने मुझको सलाम लिक्खा है !
4.
अब भी
कुछ इंतज़ार बाक़ी है ?
महफ़िलें ख़त्म
उठ गए हैं रिंद
बस दिल-ए-दाग़दार बाक़ी है !
( 1975 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: दैनिक 'नव-भारत', समस्त संस्करण ( रविवासरीय ), 1975
ढूंढ कर लाए तो
जवाब कोई !
महका-महका सा है चमन
शायद
छू गए वो खिला गुलाब कोई !
2.
देखो
कितने शरीर हैं बादल
उसने खोली कहीं
ज़ुल्फ़ें अपनी
जा के टकरा गए वहीं बादल !
3.
ख़त पे औरों का नाम
लिक्खा है
कितनी मासूमियत से
आख़िर में
उसने मुझको सलाम लिक्खा है !
4.
अब भी
कुछ इंतज़ार बाक़ी है ?
महफ़िलें ख़त्म
उठ गए हैं रिंद
बस दिल-ए-दाग़दार बाक़ी है !
( 1975 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: दैनिक 'नव-भारत', समस्त संस्करण ( रविवासरीय ), 1975
1 टिप्पणी:
नन्हीं कवितायेँ गहरे तक उतरती कवितायेँ
सुंदर और बहुत खूब
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मिलित हों ख़ुशी होगी
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