बुधवार, 20 मार्च 2013

हमारे लहू के दाग़ ...

हमने
अपने  ख़ून-पसीने  से  लिखा  इतिहास
उनका  जाम  छलका
और  सब  मिट  गया !

शक्ति ? हां, हममें  है- श्रम-शक्ति, नैतिकता, ईमानदारी
शक्ति  उनमें  भी  है- वाक्-शक्ति, छल-कपट, चतुराई
हमने  नहीं  जाना  अपना  मूल्य
उन्होंने  जाना  है।
इसीलिए  तो  वे  लाभ  उठाते  हैं
हमारे  खून-पसीने  की  कमाई  रोटी
छीन  खाते  हैं !

उनके  हाथों  में  है  हमारी  रोटी
उनकी  आस्तीन  पर
हमारे  लहू   के  दाग़ ...

हम  क्यों  नहीं  कुछ  कर  पाते
चुप  रह  जाते  हैं ?
क्या  वे
और  हिंसक  हो  गए  हैं ?
या  हम  ही  नपुंसक  हो  गए  हैं ?!!

कुछ  तो  करना  ही  होगा
न  सही  वर्त्तमान,
भविष्य  के  लिए  मरना  ही  होगा
ताकि
हमारी  अगली  पीढ़ी
अपना  कमाया  ख़ुद  खा  सके
और  धो  सके
हमारी  नपुंसकता  के  गुनाह  को।

                                                ( 1976 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: 'देश बंधु', भोपाल ( 1976 ), 'अंतर्यात्रा'-13, ( 1983 ). पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।



1 टिप्पणी:

Rajendra kumar ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,सादर धन्यबाद.