सम तक पहुँचने में
ता थेई
त्राम थेई
तिक धा तिक तिक थेई
तिक धा तिक तिक थेई
तिक धा तिक तिक थेई
सम तक पहुंचने में
ख़ासी मेहनत
और देर लगती है !
( 1983 )
रात बिताने के लिए
मेरी बीड़ी
बुझ रही है
और सुबह बहुत दूर है
अब तुम्हें
रात बिताने के लिए
अलाव जलाना चाहिए।
( 1983 )
छिपकलियां
छिपकलियां रेंग रही हैं
धीरे धीरे
वे
मकड़ी का जाला
तोड़ देंगी
एक दिन !
( 1983 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'नव भारत', ( रविवासरीय ) रायपुर, 'आवेग', रतलाम एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
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