सरकारी कर्मचारियों की बस्ती के बीच
चलता है झूलाघर
सरकार के नेक इरादों के अनुरूप
पलते हैं देश के भावी नागरिक
दो शिक्षिकाओं
और एक आया के भरोसे पर
सरकार चाहती है कि
झूलाघर में खिलौने हों
किताबें भी हों
और हो एक समय के नाश्ते का इंतज़ाम
इतने छोटे से काम के लिए
हमारी भली सरकार
देती है हर माह
पांच सौ तिरासी रुपये का अनुदान
शिक्षिकाएं पैदल नहीं,
टेम्पो से आती हैं
धुली हुई साड़ियाँ पहनती हैं
और थोड़े बड़े बच्चों को
हिंदी-अंग्रेज़ी की कविताएं सिखाती हैं
आया बच्चों को झूला झुलाती है
बोतल से दूध पिलाती है
और छोटे बच्चों की छिच्छी धुला कर
पुतड़ियां भी धोती है
उसे दोपहर का नाश्ता बना कर
बर्तन भी धोने होते हैं
बच्चों की माँएं शाम को आती हैं
अपने दफ़्तरों से
बड़े बाबू के तानों और साहब की झिड़कियों से
भिन्नाती हुई
वे अपनी सारी खीझ और थकान
झूलाघर पर उतारती हैं
आया और शिक्षिकाएं
भरसक कोशिश करती हैं
मुस्कुराने की
लेकिन बच्चों की माँएं
चल देती हैं मुंह बिचका कर
बरसों से इसी तरह चलता आया है
इसी तरह चलता रहेगा झूलाघर।
( 1983 )
-सुरेश स्वप्निल
* अब तक अप्रकाशित/अप्रसारित रचना
चलता है झूलाघर
सरकार के नेक इरादों के अनुरूप
पलते हैं देश के भावी नागरिक
दो शिक्षिकाओं
और एक आया के भरोसे पर
सरकार चाहती है कि
झूलाघर में खिलौने हों
किताबें भी हों
और हो एक समय के नाश्ते का इंतज़ाम
इतने छोटे से काम के लिए
हमारी भली सरकार
देती है हर माह
पांच सौ तिरासी रुपये का अनुदान
शिक्षिकाएं पैदल नहीं,
टेम्पो से आती हैं
धुली हुई साड़ियाँ पहनती हैं
और थोड़े बड़े बच्चों को
हिंदी-अंग्रेज़ी की कविताएं सिखाती हैं
आया बच्चों को झूला झुलाती है
बोतल से दूध पिलाती है
और छोटे बच्चों की छिच्छी धुला कर
पुतड़ियां भी धोती है
उसे दोपहर का नाश्ता बना कर
बर्तन भी धोने होते हैं
बच्चों की माँएं शाम को आती हैं
अपने दफ़्तरों से
बड़े बाबू के तानों और साहब की झिड़कियों से
भिन्नाती हुई
वे अपनी सारी खीझ और थकान
झूलाघर पर उतारती हैं
आया और शिक्षिकाएं
भरसक कोशिश करती हैं
मुस्कुराने की
लेकिन बच्चों की माँएं
चल देती हैं मुंह बिचका कर
बरसों से इसी तरह चलता आया है
इसी तरह चलता रहेगा झूलाघर।
( 1983 )
-सुरेश स्वप्निल
* अब तक अप्रकाशित/अप्रसारित रचना
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