सोमवार, 30 दिसंबर 2013

आख़िर किस आशा में ...?

भविष्य  के  गर्त्त  में
छिपे  हैं
न  जाने  कितने  गहन  अंधकार
अनगिनत झंझावात
भूकम्प
और  जल-प्लावन …

समय  निर्मम  हो  रहा  है
मनुष्यता  के  प्रति
जैसे  कि  प्रतिशोध  ले  रहा  हो
मनुष्य  से
महान  धरा  और  प्रकृति  के
अपमान  का 

जिन्हें  चिंता  होनी  चाहिए
वे  ही  उत्तरदायी  हैं
वर्त्तमान  और  भावी
महाविनाश  के

कहने  को
सारी  सभ्यताएं
सारी  संस्कृतियां
और  सारे  देश
स्वतंत्र  और  संप्रभु
लगे  हुए  हैं
इनी-गिनी  महाशक्तियों  की
चाटुकारी  में....

आख़िर  किस  आशा  में
जी  रहे  हैं  देश
किस  क्रांति  या  प्रति-क्रांति  की
प्रतीक्षा  में  ???

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

  …

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

अंतिम पराजय के लिए !

जैसा  ठीक  समझें  हुज़ूर !
आप  चाहेंगे  तो  फिर  लड़  लेंगे
आप  तो  विशेषज्ञ  हैं
युद्ध-कला  के

आप  इतने  उत्कंठित  क्यों  हैं
लेकिन  ?
आप  सोच  रहे  हैं  संभवतः
असावधानी  और  अति-आत्म-विश्वास
ले  डूबा  आपको
किंतु  अर्द्ध-सत्य  है  यह
वस्तुतः 
आप  जब  तक  उत्कंठित  हैं
तब  तक
कभी  समझ  नहीं  पाएंगे
अपनी  पराजय  के  वास्तविक  कारणों  को !

वास्तविकता  तो  यह  है
कि  आपका  चरित्र
आपकी  नीतियां
आपकी  विचारधारा
और  आपकी  रण-नीति
इतने  अधिक  प्रदूषित  हो  चुके  हैं
कि  जब  भी
सत्य,  ईमानदारी  और  न्याय  के  पक्षधर
उतरेंगे  आपके  विरुद्ध
मैदान  में
तब-तब 
केवल  पराजय  ही  हाथ  आनी  है  आपके

बेकार  की  ज़िद  छोड़िये,  हुज़ूर !
हम  जनता  हैं
आपकी  सारी  सम्मिलित  सेनाओं  से
सैकड़ों-हज़ार  गुना

हम  तो  ख़ाली  हाथ  ही  बहुत  हैं
सरकार  !

चुनौती  आपने  दी  है
युद्ध  तो  लड़ना  ही  होगा  आपको

तैयार  हो  जाइए,  महाशय
अपनी  अवश्यंभावी 
अंतिम  पराजय  के  लिए  !

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

 …

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

गिद्ध लौट आए हैं : तीन

               । तीन।
गिद्ध  लौट  आए  हैं
इस  सूचना  और  आशा  पर
कि  फिर  एक  बार
कोई  रक्त-पिपासु,  कोई  नर-पिशाच
उतर  आया  है
भारत  की  महान  युद्ध-प्रेमी  धरा  पर
फिर  दोहराया  जाए  संभवतः
कोई  कलिंग,  कोई  कुरुक्षेत्र  …

आपका  क्या  विचार  है ?
जीतेगी  मनुष्यता
या  जीतेंगे  नर-पिशाच ??? 

युद्ध  बहुत  कठिन  है  इस  बार
मनुष्यता  के  लिए
जीत  और  हार  दोनों  ही  स्थितियों  में
मानेंगे  नहीं  नर-पिशाच
संभव  है,  युद्ध  के  पूर्व  ही
गिरने  लगें  शव
निर्दोष  मनुष्यों  के …
मनुष्यता  विजयी  हो  तो  भी
हार  की  खीझ  भी  पर्याप्त  है
पृथ्वी  को  रक्त-रंजित  करने  के  लिए
और  यदि  हार  गए  मनुष्य
नर-पिशाच  की  सेनाओं  से…

कहते  हैं,  गिद्ध  बहुत  पहले  ही  जान  लेते  हैं
आगामी  रक्त-पात  का  समय…

हां,  गिद्ध  लौट  आए  हैं  फिर  एक  बार
अभूतपूर्व  रक्त-पात  की  संभावनाओं  के  मद्दे-नज़र  ....

                                                                                ( 2013 )
                                                                  
                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 23 दिसंबर 2013

गिद्ध लौट आए हैं !

            । एक।

गिद्ध  लौट  आए  हैं
बस्तियों  के  आस-पास
बहुत-से  सूखे  हुए  पेड़ों  पर
नज़र  आने  लगे  हैं
आजकल

गौरइयें  भी  आएंगी  क्या
अपने  छूटे  हुए  घोंसलों  में ?

घर  बहुत  सूना  लगता  है
सचमुच
गौरेयों  के  बिना  !

और  कौवे ?
क्या  सचमुच  आएंगे  लौट  कर
पूर्वजों  का  भोग
जुठारने  ?

                     । दो।

गिद्ध  लौट  आए  हैं
तमाम  आशंकाओं  को
दरकिनार  करते 
तमाम  असंभावनाओं  के  विरुद्ध
आगामी  पांच  वर्ष  तक
ताजो-तख़्त  सम्हालने  के  लिए

सम्भवतः 
अन्य  कोई  और  विकल्प   हो
अगली  बार 
चुनने  के  लिए … ।

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 21 दिसंबर 2013

मैं नियंता हूं ...!

लो,  मैंने  धो  दिए
सारे  चरित्र
और  डाल  दिया  है  उन्हें
अलगनी  पर
सूखने  के  लिए

तुम  इस  बार
स्वयं  चुन  सकते  हो
अपना  चरित्र
अपनी  इच्छा,  सुविधा
और  स्वभाव  के  अनुरूप

लेकिन  ध्यान  रहे
अंतिम  निर्णय  मेरा  ही  होगा
मैं  नियंता  हूं  इस  कहानी  का
और  तुम 
एक  चरित्र  मात्र

यह  भी  ध्यान  रखना
कि  हर  बार  केंद्रीय  भूमिका
आवश्यक  नहीं  होती !

तुम  निश्चय  ही  स्वतंत्र  हो
चरित्र  चुनने  के  लिए
किंतु  कहानी  और  संवादों  में
परिवर्त्तन  के  लिए  नहीं

जब  तक  तुम  इस  कहानी  में  हो
किसी  भी  भूमिका  में
तुम्हें  मानने  ही  होंगे  मेरे  निर्देश
इस  से  अधिक  की  आशा  मत  करो

यदि  तुम  अब  भी  असंतुष्ट  हो
तो  लिख  सकते  हो
स्वयं  अपनी  कहानी
तुम  चाहो  तो
बाहर  निकल  सकते  हो
इस  कहानी  से…

जो  भी  निर्णय  हो  तुम्हारा
सूचित  कर  देना  मुझे
चरित्रों  के  सूखने  से  पहले !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

  …

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

पा सकूं एक नाम...!

मैं  जब  समुद्र  था
बहुत-से  आकाश  थे
मेरे  भीतर
अजेय,  अपरिमेय
असीम…
स्वयं  मेरे  अपने  विस्तार  से
कहीं  बहुत  अधिक  विशाल
अक्सर  मेरे  मनोबल  को
चुनौती  देते !

जब  मैं  सूर्य  था
तब
अनगिनत  नदियां  प्रवाहित  थीं
मेरे  अंतर्मन  की  अग्नि  को
शांत  करती
अपनी  शिशु-सहज  अठखेलियों  से
बहलाती  हुई   मुझे

मैं  जब  मनुष्य  था
मेरे  भीतर
सारे  समुद्र  थे
सारे  आकाश
और  सारी  नदियां
करोड़ों  आकाश-गंगाएं
तरह-तरह  की  संस्कृतियां
अबूझ,  अविस्मरणीय,
एक-दूसरे  से   जूझते  इतिहास
बनती-मिटती   सभ्यताएं ....


यह  प्रश्न  पूछा  जा  सकता  है
सहज  ही
कि  मैं  इतना  कुछ  होते  हुए  भी
क्यों  कभी  बचा  नहीं  पाया
अपनी  अस्मिता....

सम्भवत: ,  मैं  मात्र  एक विचार  ही  था
अविकसित,  अपरिपक्व
एक  अपूर्ण  शरीर
एक  भ्रमित  मस्तिष्क  में
बार-बार  सिमटता-फैलता
जन्म  लेता  और  मरता  हुआ ....

नहीं,  कोई  कथा  नहीं  है  मेरी
जिसे  कहा-सुना  जा  सके

अगली  बार  जब  जन्म  लूं
प्रयास  करूंगा 
कि  पा  सकूं  एक  नाम
स्पष्ट  और  सुनिश्चित....!

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

न्याय और अन्याय !

शोर  जब  जनहित  में  हो
तो  अपराध  नहीं  होता
जनहित  में  वस्तुत:  क्रांति  भी
अपराध  नहीं  होती
यहां  तक  कि  जन-विरोधी  शासक-वर्ग  को
नेस्त-नाबूद  कर  देना  भी …

जब  शासक-वर्ग  जनहित  के  विरुद्ध  हो
तो  दंड-संहिताएं  बदल  दी  जानी  चाहिए
बदल  दिए  जाने  चाहिए
न्यायाधीश  और  न्यायालय

न्याय  यदि  पीड़ित  को  स्वीकार  न  हो
तो  न्याय  कैसा ?

सन्दर्भों  से  परे
न्याय  और  अन्याय
हो  सकता  है
समानार्थक  लगें

किन्तु  समय-विशेष  पर
कौन  तय  करेगा
न्याय  और  अन्याय  की
परिभाषाएं ?

                                                 ( 2013 )
                             
                                          -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

नमो नारायण कबाड़ी !

लो,  आ  गया  गांव  में
नमो  नारायण  कबाड़ी !

ले  आओ  बाप-दादों  की
ज़ंग  खाई  तलवारें
चाक़ू-छुरियां,  भाले और त्रिशूल
अब  शायद  ज़रूरत  न  पड़े  इनकी
वैसे  भी  इसी  के   गुर्गों  की  देन  है
यह  कबाड़....

सुना  है  कि  जब
देश  का  शासक  बन  जाएगा
नमो  नारायण
तब  बीच  समुद्र  में
खड़ा  करेगा
संसार  का  सबसे  ऊंचा  बिजूका
जिसके  सर   पर  बीट  करने
आमंत्रित  किए  जाएंगे
दुनिया  भर  के  गिद्ध  और  कौए…

कहां  चक्कर  में  पड़  गया  बेचारा
सीधा-सच्चा  नमो  नारायण  कबाड़ी
ऐसी  अद्भुत  कल्पना-शक्ति  पा  कर  भी

समझाओ  यार  कोई !
कविताएं  लिख 
और  चाय  बेच,  चाय  !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 15 दिसंबर 2013

...मगर बताएंगे नहीं !

बहुत  से  चमत्कार 
घटित  होते  हैं
लोकतंत्र  के  प्रांगण  में
मुख्य  प्रतिद्वंदियों  की 
आशाओं  के  विपरीत ....

अक्सर  मुक़ाबला  वे  जीतते  हैं
जो  सबसे  पीछे  दीखते  हैं !

न,  स्वप्न  देखना  अपराध  नहीं
संसार  के  किसी  भी  देश  में
किसी  भी  क़ानून  में
और  हो  भी  तो  क्या  ?

ऐसी  कोई  दवा  भी  तो  नहीं  बनी
आज तक
जो  बदल  दे
करोड़ों  मनुष्यों  की
जैविक  संरचना
एक  ही  ख़ुराक़  में  !

यही  तो  आनंद  है  लोकतंत्र  का
कि  लड़ते  हैं  वे
जिनके  हाथ  में
कोई  सूत्र  नहीं  होता !

हथियार  जिनके  पास  होते  हैं
वे  पता  नहीं  कब  और  कैसे
अपनी  रण-नीति  तय  करते  हैं
और  देखते  ही  देखते
खंडित  कर  देते  हैं
सारे  साम्राज्य  !

छत्र-भंग  तो  हो  कर  ही  रहेगा
इस  बार  भी
मगर  अगला  सिर  किसका  होगा
जिस  पर  सजेगा  छत्र
यह  सिर्फ़
हम  ही  जानते  हैं

जानते  हैं
मगर  बताएंगे  नहीं
किसी  को  भी  !

                                                  ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 




शनिवार, 14 दिसंबर 2013

क्या ज़रूरत थी...?

आ  रहा  है  विजय-रथ
लोकतंत्र  के  महा-रण   में
विजयी  महारथी  का
जीत  के  उन्माद  में  चूर
सिपाहियों  की  भीड़  के  साथ  …

गाजे-बाजे,  आतिशबाज़ी
और  जीत  की  सलामी  देती  बंदूकें
काफ़ी  हैं
दहशत  में  डालने  के  लिए
पराजित  प्रत्याशियों 
और  समर्थकों  को

कोई  नहीं  रोकेगा  इस  समय
इस  निर्लज्ज  प्रदर्शन  को
जो  ध्वस्त  करता  जा  रहा  है
तमाम  स्थापित  मूल्य
मान्यताएं  और  परम्पराएं

यदि  लोकतंत्र  का  महा संग्राम
इसी  तरह  संपन्न  होना  है
जहां  पराजितों  की  मनुष्यता
एक  ही  वार  में  नष्ट  कर  दी  जाए
और  उन्हें  गाजर-मूली  की  तरह
काट  डाला  जाए
और  विजेता  को
सरे  आम  लूट  का
अधिकार  दे  दिया  जाए
तो  क्या  ज़रूरत  थी
सामंतवाद  के  स्थान  पर
लोकतंत्र  लाने  की  ?

                                              ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

  …

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

बहुत फिसल चुके !

कितना  विचित्र  अंधकार  है
प्रकाश  की  संभावना
नज़र  ही  नहीं  आती
इस  देश  में !

हम  तो  सर्वज्ञात  थे
सारे  संसार  को
मार्ग  दिखाने  के  लिए…!

बहुत  फिसल  चुके  हम
नैतिक  और  आध्यात्मिक  रूप  से
स्वतंत्र  होते  ही
कई  शताब्दियों  की  परतंत्रता  से

आख़िर  क्या  हुआ  ऐसा
क्या  यह  परतंत्रता  का  संस्कार  है
या  हमारी  जैविक  दुर्बलता  ?

निर्णय   हमें  ही  करना  है
और  परिष्कार  भी !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

तुम मनुष्य नहीं !

तुम्हारे  हाथ  में   चार  उंगलियां  हैं
तुम  मनुष्य  नहीं  हो

तुम  खाना  हाथ  से  खाते  हो
तुम  भी  मनुष्य  नहीं  हो

तुम  हमारी  तरह  नहीं  सोचते
तुम  तो  कभी  भी
नहीं  हो  सकते  मनुष्य  !

पेशकार,  ज़रा  आवाज़  लगाओ
उस  प्रकृति  को
जिसने  बनाया  है
इन  आधे-अधूरे  मनुष्यों  को  !

हम 
न्याय  के  सर्वोच्च  आसन  पर
बैठने  वाले
न्यायाधीश  निर्णय  देते  हैं
कि  ऐसे  हर अजूबे  को
बेदख़ल  कर  दो
मनुष्यता  से
जो  शरीर  या  रुचियों  से
ठीक  हमारे  जैसा  न  हो !

कल  से  कोई  भी  ऐसा  अजूबा
सामने  आए
तो  उसे  डाल  दो  जेल  में
दस  साल  के  लिए
ज़्यादा  गंभीर  मामला  हो
तो  सारे  जीवन  के  लिए

पेशकार !
वह  प्रकृति  हाज़िर  हुई 
या  नहीं ?!

                                           (2011)

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

..

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

क्षमा किया आपको !

स्पष्ट  बताइए
एक  भी  शब्द  व्यर्थ  किए  बिना
कि  यह  खेल  है
या  युद्ध....

नियम  तय  करना
और  उनका  पालन  करना
आवश्यक  है
दोनों  पक्षों  के  लिए
कहीं  कोई  छूट  नहीं
न  राहत
किसी  भी  वास्तविक  या  काल्पनिक
कारण  के  लिए

आप  हमें  मूर्ख  समझते  हैं
कि  हम  आपके  कहे  अनुसार
अपनी  रणनीति  बनाएं ?!

आपने  ही  की  थी  अभ्यर्थना
'युद्धं  देहि !'
अब 
हाथ  क्यों  कांप  रहे  हैं  आपके
प्रत्यंचा  चढ़ाते  ?

चलिए,  क्षमा  किया  आपको
अगली  बार  तय  करके  आइए
रणभूमि  में
अच्छी  तरह  से
अपने  गुरुजन  से  परामर्श  करके !

                                                  (2011)

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

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यही वक़्त है ....

वे दिन गए 
जब आम आदमी भागता था 
कुर्सियों के पीछे 
अब आम आदमी आगे 
और पीछे-पीछे दौड़ रही हैं कुर्सियां 
जैसे  आगे  हों बिल्लियां
और  चूहे  उन्हें  छकाते  हुए 
जैसे  शेर  कांपने  लगे  थर-थर 
बकरियों  को  देख  कर ... 

अद्भुत  दृश्य  है  न 
न  कभी  देखा  न  सुना 

इसे  सहेज  कर  रख  लीजिए 
अपनी  स्मृतियों  में 
2011  में  जनपथ  की  चेतावनी  वाले 
दृश्यों  के  साथ  जोड़  कर 
अपनी  भावी  पीढ़ियों  के  
सामाजिक  संस्कार  के  लिए …

हां,  यही  वक़्त  है 
सही  वक़्त

इसके  पहले  
कि  पूंजीवाद  नष्ट  कर  दे 
मानवता  की  बची-खुची  निशानियां 
और  छिन्न-भिन्न  कर  दे 
संबंधों  के  ताने-बाने 
कुछ  आदर्श  रख  लीजिए  बचा  कर 
ताकि  कुछ  बच  रहे 
दिन-प्रतिदिन  जर्जर  होती 
मनुष्यता  की  उम्र  !

                                                (2011) 

                                        -सुरेश  स्वप्निल  



 

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

अबे ओ, मालिक !

न  मालिक !  बहुत  हुआ
मज़दूरी  तो  देनी  ही  होगी  तुम्हें
आज  और  अभी

बहुत  हाड़  तोड़  लिए,  मालिक
झंडे  उठा-उठा  कर
ख़ूब  दौड़  लिए  यहां-वहां
रात-रात  भर  जाग-जाग  कर
उठाते-धरते  रहे
तुम्हारी  सभाओं  के  ताम-झाम
गले  फाड़-फाड़  कर  नारे  लगाते
फेफड़े  तक  सुजा  लिए  अपने

किसलिए,  मालिक  ?
चार  पैसे  के  ही  लिए  न !

आपने  वादा  किया  था
कि  चुनाव  के  दिन  ही
मिल  जाएंगे  पैसे
अब  तो  परिणाम  भी  आ  चुका,  मालिक !

मालिक,  आपकी  हार-जीत  से
हमें  क्या  मतलब ?
हमने  अपना  काम  किया
पूरी  ईमानदारी  से
आप  हारे  या  जीते
हमें  इससे  क्या ?

मालिक,  घर  नहीं  गए  हैं  हम
पिछले  दो  महीने  से
हमारा  भी  घर-बार  है
बच्चे  हैं  छोटे-छोटे....

किस  बात  का  सब्र,  मालिक ?
भीख  नहीं,
अपने  काम  की  मज़दूरी
मांग  रहे  हैं  हम !

अबे  ओ,  मालिक !
मज़दूरी  देता  है  सीधे-सीधे
हमारी
या  उठाएं  झाड़ू  ?!!

                                                   (2013)

                                             -सुरेश  स्वप्निल

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

श्रद्धांजलि : कॉमरेड नेल्सन मंडेला

                                    ख़ेराजे-अक़ीदत

                                               ख़ेराजे-अक़ीदत
               
                                      जनाब  मरहूम  नेल्सन  मंडेला 


                         उसके  क़दमों  के  निशां  वक़्त  के  सीने  पे  हैं 

                         चला  ज़रूर  गया  है  वो:  शख़्स  दुनिया  से  …


                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  ज़िंदाबाद !  ज़िंदाबाद !
                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  अमर  रहें!  अमर  रहें !



                                                                                          6  दिसं  2013


                                                             -सुरेश  स्वप्निल  और  इंसानियत  के  तमाम  सिपाही



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गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

इस बार चूकने का अर्थ...

अंत  निकट  है
एक  जन-विरोधी  सरकार  का
तुम्हारी  तैयारियां  क्या  हैं
एक  वास्तविक 
और  जनोन्मुखी  विकल्प  के  लिए  ?

समय  कम  है
और  विकल्प  सीमित
उत्तरदायित्व  असीमित  हैं

अपना  लक्ष्य  सुनिश्चित  करो
और  इतना  संघर्ष  करो
कि  आने  वाली  कई  सरकारें
तुम्हारे  नाम  से  ही  भयभीत  रहें  ....

दो  दशक  से  अधिक  समय  तक
निरंतर  अपमान
भूख,  भय,  अत्याचार
भ्रष्टाचार,  मंहगाई,  बेरोज़गारी
क्या-क्या  नहीं  सहा  तुमने  ???

ऐसा  लोकतंत्र  मत  लादो
अपने  सिर  पर
कि  फिर  भुगतना  पड़े
सदियों  तक  ....

अभी  समय  है
जो  करना  है  अभी  ही  करना  होगा
इस  बार  चूकने  का  अर्थ  है
सारी  संभावनाएं  नष्ट  कर  लेना  !

कल  शिकायत  किससे  करोगे  ?
और  किस  बात  की
अपनी  कायरता  की  ???

                                                   (2013)

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

वे मारे जाते हैं ...

असली  खेल  तो  अब  शुरू  होगा
जब  शिकार  के  मांस  से
पेट  भर  चुकने  के  बाद
वापस  लौट  जाएगा  शेर
अपनी  कंदरा  में

उसके  बाद  बारी  आएगी   परजीवियों  की
सबसे  पहले
शिकार  को  घेर  कर  लाने  वाले
जंगली  कुत्तों  की
फिर  सियार
फिर  लोमड़ियां
फिर  गिद्ध....
एक-दूसरे  पर  झपटते
एक-दूसरे  का  मांस  नोंचते
कोई  नहीं  चाहता
दूसरे  को खाने  देना

यद्यपि, बड़ी  विचित्र  बात  है
कि  अपनी  पसन्द  के  हिस्से
खा  चुकने  के  बाद
सब  लौट  जाते  हैं
दूसरी  जाति  के  पशुओं  को
बचा-ख़ुचा  खाने  के  लिए  छोड  कर

एक  अलिखित  समझौता  है
सारे  मांसाहारियों  के  बीच
सबकी  अपनी-अपनी  बारी
सबके   अपने-अपने  हिस्से

जो  मारे  जाते  हैं
वे  शिकायत  नहीं   करते

या  इसे  यूं  भी  कहा  जा  सकता  है
कि  वे  मारे  जाते  हैं
जो  शिकायत  नहीं  करते  !

                                                       (2013)

                                                -सुरेश स्वप्निल

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सोमवार, 2 दिसंबर 2013

श्रद्धांजलि: भोपाल गैस त्रासदी

बच्चा  डूबा   है  नींद  में
नींद  बहुत  गहरी  है
गहरा  है  नींद  का  रहस्य

बच्चे  की  मुंदी  हुई  आंखों  में
क़ैद  हैं  कई  सपने
फूलों  के,  परियों  के
रंगीन  तितलियों  के
डरे  और  सहमे  से

बच्चे  की  नींद  पर
बैठा  है  फन  खोले
ज़हरीला  नाग  एक
(विज्ञानं  की  पुस्तकों  में
मिथाइल  आइसो  सायनेट  के  नाम  से
पहचाना  गया)

नाग  की  हिफ़ाज़त  में
भारी  ख़ज़ाना  है
परदेसी  बंजारा
छोड़  गया  अपना  धन
लौटेगा
लौटेगा  एक  दिन…

छप्पर  की  दरारों  से
टुकुर-टुकुर  तकती  है
मटमैली  गौरैया
बच्चे  की  मुंदी  हुई  आंखों  में
नापती  है  नाग  की  आंखों  की  गहराई
तौलती  है  अपने  पंखों  की  ताक़त

लाएगी  गौरैया
छीन  कर  बंजारे  से
नींद  के  तालों  की  चाभियां
नागों  का  वशीकरण-मंत्र
खोलेगी  नींद  का  रहस्य !

                                                      (1985)

                                               -सुरेश  स्वप्निल 




मंगलवार, 26 नवंबर 2013

क्रांति के लिए ...!

उस  शिकायत  का
कोई  अर्थ  नहीं
जिसे  शासक-वर्ग  सुन  कर  भी
अनसुना  कर  दे

एक  व्यक्ति  की  आवाज़  का
यही  परिणाम  होता  है
अक्सर

क्रांति  के  लिए
एक  क्रांतिकारी  पार्टी  चाहिए
जन-जन  के  हृदय  में  पैठी  हुई
जिसकी  आवाज़
किसी  भी  रण-दुन्दुभि  से  तेज़  हो
जो  जब  उठे
तो  दिल  दहल  जाएं
सत्ताधीशों  के....

समझौता-परस्तों  के
सिर्फ़  जमावड़े  होते  हैं
छोटे-मोटे 
हित-साधन  के  लिए  !

क्रांति  चाहिए
तो  पार्टी  बनानी  ही  होगी
आत्म-बलिदानियों  की  !

                                            (2013)

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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सोमवार, 25 नवंबर 2013

झूठ के दम पर ...!

इतिहास
भूलने  की  चीज़  नहीं  होती
जब  तक  कोई  राष्ट्र
लज्जित  न  हो  अपने  अतीत  पर  !

ज़िंदा  राष्ट्र
नए  इतिहास  गढ़ते  हैं
अतीत  से  लज्जित  हुए  बिना
वर्त्तमान  से  मुंह  छिपाए  बिना
भविष्य  की  अनिश्चितता  से
डरे  बिना !

झूठ  के  दम  पर
न  राष्ट्र  बनते  हैं
न  संस्कृति

मिथक  नहीं
अध्याय  बनो
नए  इतिहास  का !

                                                  (2013)

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 24 नवंबर 2013

मनुष्य का दख़ल ...

एक  अव्यक्त  भय 
फैला  हुआ  है
वातावरण  में
जैसे  समुद्र  के  जल  में
ज्वार-भाटे  तक  नहीं  आते
सही  समय  पर
शहर  और  गांवों  में
पक्षी  भी  दिखाई  नहीं  देते
वनों  में
हिंस्र  पशु  भी  चुपचाप  पड़े  रहते  हैं
अपनी  भूख  दबा  कर…

मनुष्य  का  दख़ल
बढ़ता  ही  जा  रहा  है
प्रकृति  के  हर  क्षेत्र  में
तथाकथित  विकास  के  नाम  पर
ध्वस्त  किए  जा  रहे  हैं
सारे  संतुलन    

पता  नहीं
कुछ  मनुष्य  अथवा  समूहों  की
समृद्धि  की  अतृप्त  आकांक्षाएं
कौन  से  दिन  दिखाएंगी
प्रकृति, पर्यावरण
और  स्वयं  मनुष्यता  को  !

                                                                   (2013)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

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शनिवार, 23 नवंबर 2013

शर्म आती है नागरिकों को ...

आंखों  की  आदत  बिगड़  गई  है
शायद
या  चश्मे  में  कुछ  ख़राबी
आ  गई  है
कुछ  भी  अच्छा,  शुभ
या  सुंदर  दिखाई  नहीं  देता
आजकल

या  सचमुच  हालात
इतने  ही  ख़राब  हो  गए  हैं
देश  के

हर  तरफ़ 
सूखे,  मुरझाए  चेहरे
गड्ढों   में  धंसी  आंखें
फटे-पुराने,  अपर्याप्त  कपड़े  पहने
सुबह  से 
दो  वक़्त  के  खाने  की  जुगत  में
लगे  हुए  बच्चे …

दूसरी  ओर
निर्लज्ज्ता  की  सीमाएं  लांघती
समृद्धि
स्वप्न  से  भी  बाहर  हो  चुके
ऊंचे,  वैभवशाली  मकान
फ़ुटपाथ  पर  सोते  हुए
अक्सर 
किसी  मदांध  रईस  की  गाड़ी  से
नींद  में  ही  मारे  जा  चुके
ग़रीब-मज़दूर....

और  विकास  के  झूठे  सपने
दिखाते  तथाकथित  जन-प्रतिनिधि
सीधे-सरल  जीवन  की
तमाम  संभावनाएं 
नष्ट  करती  हुई  सरकारी  नीतियां....

आख़िर  क्यों
इसी  देश  में  जन्म  लेना
ज़रूरी  था मुझे ???

यहां  तो  शर्म  आती  है
नागरिकों  को
अपने  अधिकार  की 
लड़ाई  लड़ते  हुए...!

                                               (2013)

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

हर चुनाव में... !

शोर  थमा  नहीं  है  अभी
चुनाव  का
सुबह  होने   से  पहले  ही  आ  जाते  हैं
हर  दल  के  प्रत्याशियों  के  वाहन
अपने-अपने  नारे  और  फूहड़  गीतों  को
लाउडस्पीकर  पर  बजाते  हुए....

बहुत  से  क़ानून,  बहुत  से  नियम  हैं
आम  आदमी  को  शोर  से  बचाने   के
न  कोई  जानता  है  न  मानता  है
न  ही  किसी  की  रुचि  है
क़ानून  के  पालन  में ....

जब  पालन 
सुनिश्चित  नहीं  किया  जा  सकता
तो  बनाते  क्यों  हैं
तरह-तरह  के  नियम-क़ानून ?!!

किसी  को  नहीं  पता
कि  कुल  कितने  आम  आदमी
खो  देते  हैं  अपनी  श्रवण-शक्ति
हर  चुनाव  में !

                                                      (2013)

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

सारा देश श्मशान ...!

यदि  जनता  के  मन  को
भांप  पाना 
इतना  आसान  होता
तो  कोई  भी  सरकार  कभी
सत्ता  से  बाहर  न  होती !

यदि  जनता  नृशंस  हत्यारों  के  इरादों  से
परिचित  न  होती
तो  सारा  देश
श्मशान  बन  गया  होता

यदि  जनता  के  ऊपर  राज  करने  का  सपना
देखने  वाले
ज़रा-से  मनुष्य  भी  होते
तो  सर-आंखों  पर  न  बिठा  लेती  जनता ?!!!

                                                                     ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

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बुधवार, 20 नवंबर 2013

किसलिए, जहांपनाह ?

क्या  कोई  बता  सकता  है
कि  बंदूक़  से  निकली  गोली
किसकी  जान  लेगी
खेत  में  छुपा  हुआ  सांप
किसको  डसेगा
खूंटे  से  छूटा  हुआ  पागल  सांड़
किसको  रौंदेगा
रैबीज़  से  परेशान
आवारा  पागल  कुत्ता
किसको  काटेगा
किसके  हिस्से  में  आएगी
ज़मीन   में  दबी  हुई  सुरंग ???

मौत  उसी  जगह
उसी  दिन
उसी  समय  आएगी
जहां  तय  होगी

तय  न  हो  तो
ठोकर  भी  नहीं  लगती  पांव  में !

फिर  यह  सुरक्षा  किसलिए,  जहांपनाह ?
किसका  भय  है  शाहे-आलम
किसके  नाम  से  थर-थर  कांप  रहे  हो
तुम,  ता  ना  शा  ह !!!!

                                                              ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

सात आकाश भी कम...

वह  नृशंस  हत्यारा
जब  भी  खाना  खाने 
बैठता  है
अपने  कारनामों  का  वीडिओ
चला  लेता  है

उसे  अपने  गुर्ग़ों  के
काटो-मारो  के  स्वर
वैदिक  ऋचाओं  जैसे  लगते  हैं
और  वह
अपने-आप  को
देवासुर  संग्राम  का  महानायक
समझने  लगता  है

भय  से  थर-थर  कांपते
अंग-भंग  किए  जाते
ज़िंदा  जलाए  जाते
मनुष्यों  के  आर्त्तनाद
उसकी  भूख  बढ़ा  देते  हैं
और  वह  अपनी  रक्त  की  प्यास  बुझाने
नए  तरीक़े  सोचने  लगता  है …

वह  दिग्विजय  करने  निकला  है
सारे  देश  में
नए  गुर्ग़े  और  नए  शिकार
तलाश  करने…

वह  जहां-जहां  जाता  है
आस-पास  के  सारे  रक्त-पिपासु
इकट्ठे  हो  जाते  हैं
प्रेरणा  लेने

मनुष्यता  के  लिए
सबसे  बड़ा  संकट  है
एक  निर्लज्ज  तानाशाह
सात  आकाश  भी  कम  हैं
उसकी  निर्लज्ज्ता  ढंकने  के  लिए !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 18 नवंबर 2013

तुम्हारे हाथ के पत्थर ...!

चलो  बस  भी  करो
बातें  बहुत-सी  हो  चुकीं
आ  जाओ  अब
मैदान  में  ....

देखो
तुम्हारे  शत्रुओं  के  पास
क्या-क्या  है
नए  हथियार  हैं
तकनीक  है
रणनीतियां  हैं
सब  तरफ़  से  घेरने  को
ड्रोन  हैं
बम  हैं
रसायन  हैं
तुम्हें  अंधा  बनाने  को
तुम्हारे  घर  जलाने  को
तुम्हारे  हाथ-पांव  तोड़  कर
लाचार  करने  को
भयानक  सर्दियों  में
बर्फ़-सा  पानी
तुम्हारी  चेतना  का  सर  झुकाने  को ....

तुम्हारे  पास  भी  तो  है
बहुत-कुछ
स्वप्न  हैं  आकांक्षाएं  हैं
जलन  है  क्रोध  है
बेचैनियां  हैं  भावनाएं  हैं
सड़क  पर  ढेर  से  पत्थर  पड़े  हैं
हाथ  ख़ाली  हैं …

तुम्हारे  हाथ  के  पत्थर  बहुत  हैं
शत्रु-सेना  का
मनोबल  तोड़ने  को …!

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 16 नवंबर 2013

मरना ही चाहो !

बहुत  शौक़  है  न  तुम्हें
सच  बोलने
जानने  और  समझने  का
तो  तय  कर  लो
कि  कब  और  कैसे  मारे  जाना
पसंद  करोगे....

जीने  कौन  देगा  तुम्हें
न  सरकार,  न  पूंजीपति
न  ग़ुंडे-बदमाश

अदालत  भी  क्या  करेगी
दो  सिपाही  तैनात  करवा  देगी
सुरक्षा  के  नाम  पर
जो  मौक़ा  मिलते  ही  बिक  जाएंगे
तुम्हारे  दुश्मनों  के  हाथों !

पढ़े-लिखे  हो
बेहतर  है  नौकरी  कर  लो
किसी  पूंजीपति  के  यहां
कहो  तो  चपरासी  बनवा  दें
नगर-पालिका  में

कहां  पड़े  हो
सच-झूठ  के  चक्कर  में
भविष्य  देखो  अपना
और  अपनी  संतानों  का  !

अब  अगर  मरना  ही  चाहो
तो  तुम्हारी  मर्ज़ी !

                                        ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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कठपुतलियों के इरादे !

ये  कठपुतलियां  कौन  हैं
जिनकी  न  डोर  दिखाई  देती  है
न  डोर  थामने  वाली  उंगलियां
मगर
जिनकी  एक-एक  गति  पर
उथल-पुथल  हो  उठता  है
पूरा  देश  ?!

बहुत  भयंकर  हैं
इन  कठपुतलियों  के  इरादे
और  उनसे  भी  भयानक  हैं
इन्हें  नचाने  वाली  उंगलियों  की  गतियां
वे  हिलती  हैं  तो  कहीं  न  कहीं
गिरने  लगती  हैं
लाशें !
लोग  जैसे  भूल  ही  जाते  हैं
कि  वे 
जीते-जागते,  बुद्धिमान  मनुष्य  हैं
कठपुतलियां  नहीं  हैं  महज़....

वे  अपना  नाम-पता,
धर्म-संस्कृति,  इतिहास  और  वर्त्तमान
सब  कुछ  भूल  जाते  हैं
और  तब्दील  होते  चले  जाते  हैं
मानव-बमों  में !




नहीं,  सिर्फ़  सपने  देखने

और  सपने  में  डर  जाने  से  नहीं  चलेगा
अब  तलाशने  ही  होंगे 
इन  कठपुतलियों  को  नचाने  वाले  धागे
और  वे  बदनीयत  हाथ
तोड़  देनी  होंगी  वे  उंगलियां
जिनके  वीभत्स  संकेतों  पर
नष्ट  होती  जा  रही  है
संसार  के  श्रेष्ठतम्  युवाओं  की
पूरी  की  पूरी  पीढ़ी  !

सिर्फ़  सच्चे  देशभक्त  ही
बचा  सकते  हैं  अब  इस  देश  को !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

सेठ की जूठन चाटे बिना ...!

सब  खाते  हैं
सेठ  का  दिया  हुआ

ज़ार  भी
ज़ार  के  दुश्मन
और  उनके  भी  दुश्मन....

लगता  ऐसा  है
कि  सेठ  की  जूठन  चाटे  बिना
भूखे  न  मर  जाएं
देश  के  सियासतदां !

बहुत  थोड़े  ही  हैं
हालांकि
सेठ  का  दिया  खाने  वाले
कोई  1000-1200
या  शायद  12000  या  120000 …
मगर  इतने  ही  भिखारियों  के  दम  पर
सेठ  1200000000   मेहनतकश  इंसानों  के  गले
छुरी  फेरता  रहता  है
साल  दर  साल  !

मगर  इस  बार
मेहनतकश  भी  तैयार  हैं
सेठ 
और  उसके  दलाल
भिखारियों  के  अरमानों  पर
पानी  फेरने  के  लिए !

जो  भी  हो
इस  बार  चूक  जाने  वाला
हारेगा  तो  जीवन-भर  के  लिए

और  जनता  बिल्कुल  तैयार  नहीं  है
इस  बार
सेठ  और  उसके  दलालों  को
बख्शने   के  लिए !

                                                         (  2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 11 नवंबर 2013

अपनी सेनाएं ले आओ !

शत्रुओं  के  रक्त  की  प्यास
क्या  इतनी  अमानवीय  होती  है
कि  पीढ़ी-दर-पीढ़ी
खोखला  करती  चली  जाए
मनुष्य  के  गुण-सूत्रों  को
और  फिर  भी
अतृप्त  ही  रह  जाए  ???

मुझे  विश्वास  है
कि  मेरी  ही  भांति
आपमें  से  अधिकांश
जूझ  रहे  होंगे  इसी  प्रश्न  से....

यहीं  कहीं  है  वह
पवित्र  बोधि-वृक्ष
जिसकी  छाँह  में  बैठ  कर
सिद्धार्थ  गौतम  बन  जाते  हैं
गौतम  बुद्ध
यहीं  कहीं  है
वह  लिच्छवियों  की  राजधानी
जिसका  भावी  शासक
सर्वस्व  त्याग  कर
हो  जाता  है  दिगंबर
यहीं  है  वह  कलिंग  का  युद्ध-क्षेत्र
जहां  शत्रुओं  के  शव  देख  कर
सम्राट  अपना  राज-पाट  छोड़  कर
धर्म  का  शरणागत  हो  जाता  है…

अरे  हां,
पवित्र  साबरमती  तो
तुम्हारे  घर  के  आसपास  ही
बहती  है  न  कहीं ???

यदि  इतने  उदाहरण  सामने  होते  हुए  भी
अतृप्त  है
तुम्हारी  मानव-रक्त  की  तृष्णा
तो  मैं  तैयार  नहीं  हूं
यह  मानने  को
कि  तुम  और  मैं
एक  ही  देश
एक  ही  धर्म 
एक  ही  प्रजाति  के  जीव  हैं  !

तुम  अपनी  सेनाएं  ले  आओ
मैं  तुम्हें  अस्वीकार  करता  हूं
अपने  प्रतिनिधि  के  रूप  में  !!!

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

किस क़दर झूठ...!


एक  चम्मच  से  दूध  पीने  वाला
दूसरे  को  शौक़  है  नस्ल  के  आधार  पर
जनसाधारण  के  नरसंहार  का....

सोच  कर  बताइए  अच्छी  तरह  से
कि  ऐसे  ही  शासनाध्यक्ष  चाहिए  क्या
आपको ???

पहले  को  यह  भी  नहीं  पता
कि  कहां  होता  है
बेर  का  मुंह
दूसरा  दावे  के  साथ  कहता  है
कि  आलू, टमाटर  सारे  देश  में  जाते  हैं
उसके  राज्य  से  !

पहला  शान  से  बताता  है
कि  उसकी  सरकार  ने
सबको  अधिकार  दे  दिया  है
भरपेट  भोजन  का !
दूसरा  उससे  भी  चार  क़दम  आगे
अपने  दल  की  सरकारों  के
गुणगान  में

आप  सब  जानते  हैं
कि  किस  क़दर  झूठ  बोलते  हैं  दोनों

प्याज़  क्या  भाव  मिल  रही  है
आजकल
आपके  शहर  में  ?
आपको  याद  है  कि  अमूल  के  दूध  का  भाव
क्या  था
आज  से  दस  साल  पहले ????

                                                                ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

डोर खींचने वाले ...!

वहां  बैठे  हैं
डोर  खींचने  वाले
वॉशिंग्टन
नागपुर
और  मुम्बई  में....

सब  जानते  हैं
कि  अपनी  मर्ज़ी  से
हिल  भी  नहीं  सकतीं
कठपुतलियां…!

डोर  खींचने  वाले
तय  करते  हैं
कठपुतलियों  की  हर  गतिविधि
यह  भी
कि  कुल  कितनी  जानें  ली  जाएंगी
लोकतंत्र  के  महा-उत्सव  में
कैसे  नियंत्रण  में  रखी  जाएंगी
कठपुतली-सेनाएं
कितनी  ख़ुराक़  ज़रूरी  है
इन  मनुष्य-भक्षी  कठपुतलियों  के  लिए !

सवाल  यह  भी  है
कि  अपने  ख़ून-पसीने  से
देश  का  भाग्य  गढ़ने  वाले
क्या  सचमुच  इतने  बेचारे  हैं
कि  तोड़  न  सकें
कठपुतलियों 
और  उनकी  डोर  हाथ  में  रखने  वालों  के
देश-द्रोही  कुचक्र ???

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

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गुरुवार, 7 नवंबर 2013

कोई हथियार रख लो !

घर  से   बाहर  निकलो
तो  जांचते  जाना
कि  कहीं  कैमरे  तो  नहीं  लगे
 आबादी  से  दूर  आते  ही
ध्यान  रखना
कि  पांव
ज़मीन  में  दबी  सुरंगों  पर
न  पड़   जाए

जहां  कहीं  भी  भीड़  जमा  देखो

चुपचाप  गुज़र  जाना

इस  दुर्द्धर्ष  समय  में
कोई  भरोसा  नहीं
कि  पुलिस
कहां  'एनकाउंटर'  कर  दे
यह  भी  भरोसा  नहीं
कि  पकड़  कर  जेल  में
न  डाल  दिए  जाओ  …

कोई  भी  ग़ुंडा-बदमाश
कहां  गोली  मार  दे
या  अगर  तुम  खाते-पीते  घर  के
नज़र  आते  हो
तो  अपहरण  न  कर  लिया  जाए
तुम्हारा  !

देखो,  समय  सचमुच  अच्छा नहीं  है
आम  आदमी  के  लिए  !
बेहतर  है,  अपने  साथ
कोई  हथियार  रख  लो
सुरक्षा  के  लिए  !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 3 नवंबर 2013

कैसा यह परिवर्त्तन ?

शोर  उठा  है  इस  नगरी  में  फिर  दीवाली  आई  है
कुछ  दीवाने  चीख़  रहे  हैं  लो  ख़ुशहाली  छाई  है

समय  बांसुरी  मौन  पड़ी  है  देख  टूटती  हर  आशा
कौन  कुबेर  भला  समझेगा  आहत  स्वरलिपि  की  भाषा

विद्युत् -मणियों  की  मालाएं  चूम  रहीं  तारों  के  मुख
माटी  के  दीपक  रोते  हैं  देख-देख  कुटियों  के  दुःख

दरबारों  में  गीत  सुनाते  हैं  चारण  आंखें  मींचे
भूख  भूख  का  आर्त्तनाद  है  विरुदावलियों  के  पीछे

जलें  झोंपड़े  मज़दूरों  के  धरती  मां  के  भाग  जले
लोकतंत्र  यह  कैसा  जिसमें  मजबूरों  पर  आग  चले

बने  सारथी  जो  प्रकाश  के  काले  उनके  भाग  हुए
विश्वासों  के  उजले  मोती  पल  में  जल  कर  राख़  हुए

राजमहल  की  जगमग-जगमग  लूट  रही  सारा  गौरव
और  झोंपड़ी   गुमसुम-गुमसुम  झेल  रही  सारा  रौरव

यह  प्रकाश  का  न्याय  नहीं  है  अंधियारे  का  नर्त्तन  है
हाय ! रौशनी  भूल  गई  सब  कैसा  यह  परिवर्त्तन  है  !

नहीं  नहीं  मत  कहो  रौशनी  यह  पागल  अंधियारा  है
सूरज  के  बेटों  को  इसने  गला  घोंट  कर  मारा  है

सदियों  से  जारी  शोषण  का  बदला  तो  लेना  होगा
अब  बलिदान  ज़रूरी  है  आगे  आ  कर  देना   होगा !

                                                                         ( दीवाली, 1975 )

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

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शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

जब तक जीवित है संविधान !

'भारत  एक  सार्वभौम, लोकतांत्रिक,
धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी  देश है…!'

सुन  रहे  हो
पूंजीवाद  के  झंडाबरदारों ?
ओ  नीली  पगड़ी  वालों,  सुन  रहे  हो ?
'समाजवादी'… 'पूंजीवादी'  नहीं। …

और  तुम  सुन  रहे  हो  या  नहीं
हिटलर  के  चेलों
काली  टोपी  वालों !
'धर्म-निरपेक्ष' … 'हिन्दू  राष्ट्र'  नहीं  !

जब  तक  संविधान  जीवित  है
भारत  का
तब  तक
या  तो  संविधान  का  पालन  करो
या  देश  छोड़  दो !

चार  पूंजीपतियों  के  वोटों  से
नहीं  बनती  सरकार
किसी  भी  लोकतांत्रिक  देश  में
न  ही  कोई  अमरीकी  आने  वाला  है
तुम्हारी  सहायता  को !

ओ  महामूर्खों !
ज़रा  अपनी  स्मरण-शक्ति  को  टटोलो
और  याद  करो
1977, 1996, 2004 को

सरकार  तो
आम  आदमी  ही  बनाएगा
भारत  में
जब  तक  जीवित  है  हमारा  संविधान !

जिसे  मुग़ालता  हो
अपने  महानायकत्व का
वह  आ  जाए  नीचे
यथार्थ  के  धरातल  पर !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

अति-नायक के हाथ सत्ता

कोई  नहीं  जानता
कि  क्या  है
अति-नायक  के  मन  में
जैसे  लोग
नहीं  जानते  कि
कब-किस  करवट  बैठ  जाए
ऊंट  !

जैसे  कोई  नहीं  जानता
कि  पागल  कुत्ता
किसको  काटेगा  अंतत:

कोई  यह  भी  नहीं  जानता
कि  तक्षक  सांप
किस  कोने  में  छिपा  बैठा  है
और  कब  हमला  कर  देगा
किसान  के  शरीर  पर....

शेर,  भालू ,  मगरमच्छ
और  शार्क  के  इरादों  को  भी
नहीं  जानता  कोई  भी....

अति-नायक   कम  नहीं  है
किसी  भी  हिंसक  पशु  से
मौक़ा  मिलते  ही
किस  पर  टूटेगा  उसका  क़हर
यह  न  आप  जानते  हैं
न  हम …

कुछ  लोग  फिर  भी
चाहते  हैं
अति-नायक  के  हाथ  में
सत्ता  सौंपना 

जिसकी  मति  मारी  गई  हो
कौन  समझा  सकता  है
भला  उसे ?

हमने  तय  किया  है
कि  हम  नहीं  होंगे
किसी  भी  अति-नायक  के  समर्थन  में …

आप  भी  तय  कर  ही  लें
अपने  बारे  में !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

श्रद्धांजलि: श्री राजेंद्र यादव

कल रात लगभग 12 बजे 'हंस' के संपादक और प्रसिद्ध कहानीकार एवं विचारक, हिंदी साहित्य से सवर्ण इजारेदारी ख़त्म करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अजेय योद्धा श्री राजेन्द्र यादव संसार से विदा हो गए !
मैं दुःखी हूं कि उन्हें लेकर जो ताज़ा विवाद उठा, उसमें मैं उनके विरोध में खड़ा रहा। वे मुझे कब और कैसे जानते थे, यह मैं उनसे कभी पूछ नहीं पाया। अनेक बार साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यक्रमों में उनसे मेरा सामना होता रहा किंतु मेरे और उनके बीच सम्बंध नमस्कार-प्रति नमस्कार से आगे नहीं बढ़ पाया। उसका एक कारण यह रहा कि मैं इतना महत्वाकांक्षी कभी रहा ही नहीं कि 'हंस' में रचना प्रकाशित करवा कर चर्चित होना चाहूं। 1982 में 'हंस' का पुनर्प्रकाशन करने के पूर्व जो पत्र मुझे लिखा था, वह अभी भी सुरक्षित है मेरे पास। यही वह समय था जब मैं सृजनात्मक रूप से सर्वाधिक सक्रिय हुआ करता था तथा 'हंस' से एक रचनाकार के रूप में जुड़ कर मैं अपने 'कैरिअर' को बहुत आगे बढ़ा सकता था।
अस्तु। मेरे और राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में कभी कोई ऐसी समानता मुझे नज़र नहीं आई कि मैं उनके पास जाने की इच्छा कर पाता, यद्यपि, मैं जानता था कि मेरे आगे बढ़ते ही वे मुझे गले से लगा लेते, ठीक वैसे ही जैसे कि उन्होंने मेरे समकालीन अनेक कहानीकारों-कवियों को लगाया।
मैं वास्तव में बेहद हैरान हूं कि मैंने सुबह से अभी तक उन रचनाकार-मित्रों की ओर से राजेन्द्र जी के निधन पर श्रद्धांजलि-स्वरूप एक भी शब्द न सुना, न पढ़ा जिनका साहित्य में जन्म ही राजेन्द्र जी और 'हंस' के माध्यम से हुआ… कृतघ्नता की सीमा यदि यह नहीं तो और क्या हो सकती है ? जिन्हें  अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए राजेन्द्र जी का आपादमस्तक, आजीवन  ऋणी होना चाहिए, जिनके वे न केवल साहित्यिक बल्कि आध्यात्मिक गुरु भी थे, वे ऐसे चुप हैं जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं !
बहरहाल, हिंदी साहित्य सदैव राजेन्द्र जी का ऋणी रहेगा भले ही उन्हें चाहे जितना नकारा जाए !
अलविदा, राजेन्द्र जी।

  ( 29/10/2013 )
                                                                                                                                 
-सुरेश  स्वप्निल

दूर रहें हमारे शहर से !

शेरों  को  हक़  नहीं
कि  वे 
खुले  आम  घूमें  शहर  में

उनकी  सत्ता  सीमित  है
अपने  वन  तक
वहीं  रहें
उन्हीं  का  शिकार  करें
जो  रियाया  है  उनकी !

वैसे  भी 
डरता  कौन  है  शहर  में
जंगली  सूअरों  और  शेरों  से
चाहे  वे  गीर  से  आएं
चाहे  कान्हाकिसली  से  !

शेरों  से  गुज़ारिश  है
कि  यहां-वहां  न  घूमें
खुले  आम  शहर  में
एक  चेतावनी  भी  है
कि  शहर  के  बच्चे
बहुत  शैतान  हो  गए  हैं
आजकल
उन्हें  शौक़  लग  चुका  है
शेरों  के  गले  में
पट्टा  डाल  कर
कुत्तों  की  तरह  घुमाने
और  बंदर  की  तरह  नचाने  का !

अपनी  सत्ता  और  सम्मान  प्यारे  हैं
तो  दूर  रहें  हमारे  शहर  से
सारे  हिंस्र, वन्य  पशु  !

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

तैयारी के बिना ...

मौसम  बदल  रहा  है
बहुत  तेज़ी  से
गर्म  कपड़े  सहेज  कर
रखे  हैं  या  नहीं  ?

कोई  भरोसा  नहीं  इस  बार
कि  मौसम 
कहां  तक  दिखाएगा  अपने  तेवर…
कोशिश  करो  कि  स्वस्थ  रह  सको
इस  बार

चेताना  ज़रूरी  है
क्यूंकि  राजनीति  से  अछूता  नहीं  अब
जीवन  का  कोई  भी  पक्ष
यहां  तक  कि  मौसम  भी
और  जीवनोपयोगी  वस्तुओं  के  भाव  भी

सरकार  की  नीयत  का  भी  तो
कोई  भरोसा  नहीं
और  न  ही  विपक्ष  की
रणनीति  का  !

तैयारी  के  बिना
अब  जीवन  का  भी
क्या  भरोसा  ?

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

नमो-नमो ????

चुनाव  आते  हैं  हमेशा
एक  दुर्भाग्य  की  तरह
और  साथ  ले  आते  हैं  अपने
चोर-लुटेरों  के  नए  गिरोह  !

संविधान  तो  कहता  है
कि  जन-प्रतिनिधि
सेवक  होते  हैं  जनता  के …

क्या  आपने  कभी  देखा  है
कि  आपके  चुने  हुए  प्रतिनिधि
पूछने  आए  हों  आपसे
आपके  दुःख-दर्द
चुनाव  के  बाद ?

क्या  महसूस  किया  है  आपने
कि  कभी  कम  हुई  हों
दैनिक  उपभोग  के  सामान
और  सेवाओं  की  क़ीमतें
नई  सरकार  आने  के  बाद ?

और  उन्हें
आप  कब  सीखेंगे
जन-प्रतिनिधियों  से  हिसाब  मांगना
और  कब  छोड़ेंगे
उन्हें 
देवता  मान  कर  पूजना ??

और  क्या  है  यह  मूर्खता
नमो-नमो,  नमो-नमो ????

                                                     (2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

श्रद्धांजलि : मन्ना दा

                          श्रद्धांजलि : मन्ना  दा

बात संभवत: 1977-'78 की है। मैं अपनी रोज़ी-रोटी से निवृत्त हो कर घर लौट कर आ रहा था। रास्ते में अचानक एक मर्म-भेदी चीत्कार जैसे कोई चातक अपने बिछुड़े हुए साथी को पुकार रहा हो, सुनाई पड़ी : 'पिया ssss ओ ओ ओ '… ! मैं जहां था वहीं ठिठक कर रह गया। रेडियो पर एक नया गीत बज रहा था। गीत ख़त्म होने पर ध्यान आया कि मैं बीच सड़क पर खड़ा फूट-फूट कर रो रहा हूं …
कोई अच्छा गीत सुन कर इस तरह रो पड़ना मेरे साथ न तो कोई अजीब बात थी और न नई बात। अक्सर मैं अपनी अम्मां के गीत सुन कर भी रो देता था। लेकिन यह एक अद्भुत संगीत-रचना, एक अद्भुत गायन था। मुखड़ा था 'पिया मैंने क्या किया, मोहे छोड़ के जइयो न', आवाज़ मन्ना दा की थी, यह तो ख़ैर समझ में आ गया किंतु अन्य विवरण मैं नहीं सुन पाया। मन पर इस गीत का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था, घर पहुंच कर सीधे अम्मां की गोद में सर रख कर काफ़ी देर तक सिसकता रहा। अम्मां मेरी आदत से परिचित थीं सो बिना कुछ पूछे मेरे बालों  में हाथ फेरती रहीं। ….
लगभग दो-तीन महीने तक वह गीत लाख चाहने पर भी मैं नहीं सुन पाया। एक दिन 'रंग महल थियेटर' के सामने से गुज़रते हुए फ़िल्म 'उस पार' के पोस्टर्स देखे, टिकिट खिड़की ख़ाली पड़ी थी सो आराम से टिकिट ले कर फ़िल्म देखने बैठ गया। यह फ़िल्म 19वीं सदी की एक फ़्रेंच कहानी पर आधारित अत्यंत भावपूर्ण प्रेम-त्रिकोण है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी, पता नहीं कहां से मन में मन्ना दा का गाया वही गीत बार-बार गूंजने लगा। मध्यांतर में भी वही गीत याद आता रहा…. अंततः, कुछ ही समय बाद फ़िल्म में वह गीत आ ही गया !
जहां तक मेरी व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न है, मुझे आज भी मन्ना दा के गाए हुए गीतों में यही सर्वश्रेष्ठ लगता है। वैसे मुझे मन्ना दा के गाए लगभग सभी गीत समान रूप से प्रिय हैं, विशेष रूप से उनके और रफ़ी साहब के साथ में गाए गीत, यथा, 'न तो कारवां की तलाश है' ( फ़िल्म 'बरसात की रात' ), 'वाक़िफ़ हूं ख़ूब इश्क़ के तर्ज़े-बयां से मैं' ( फ़िल्म 'बहू बेगम ), 'एक जानिब है शम्मे-महफ़िल, एक जानिब है रूहे-जाना', आदि-आदि।
यह भी मुझे लगता रहा है कि कम से कम हिंदी फ़िल्म-जगत ने उनके साथ न्याय नहीं किया, अन्यथा मन्ना दा के गाए गीतों की संख्या कई गुना अधिक होती….
आज दिन भर आकाशवाणी और समाचार-चैनल्स पर आप मन्ना दा के गीत सुनते रहेंगे, मैं चाह कर भी और आगे लिखने की मन:स्थिति में नहीं हूं, अतः आप से सम्प्रति क्षमा चाहूंगा। किसी दिन मन्ना दा के गायन पर विस्तार से लिखूंगा, यह वादा रहा !

अलविदा, मन्ना दा !

                                                                                                                       ( 24 अक्टू. 2013 )

                                                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

समय विपरीत हो तो पुलिस ...

'देश-भक्ति,  जनसेवा'
अच्छा  लगता  है  न
पढ़  कर,  सुन  कर…

और  देख  कर ???

रोंगटे  खड़े  हो  जाते  हैं
जब  कोई  लहीम-शहीम  लठैत
खड़ा  हो  जाता  है
आंखों  के  सामने !

सच  बताइए, 
डर  नहीं  लगता  क्या  आपको
पुलिस  के  नाम  से ?

बच्चा-बच्चा  जानता  है
कि  पुलिस  क्या  होती  है

पुलिस  यानी  डंडा
पुलिस  यानी  बंदूक
यानी  मशीन गन
यानी  'वॉटर कैनन'….

पुलिस  यानी  सरकार  का
सबसे  विश्वस्त  अनुचर
आम  आदमी  के  विरुद्ध…

भारत  में  सुरक्षित  रहना  है  तो
पुलिस  के  हत्थे  मत  चढ़ना  कभी !

समय  विपरीत  हो
तो  पुलिस 
ख़ुद  अपने  बाप  की  भी  नहीं  होती !

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

व्यर्थ आशाएं ...

कुछ  आशाएं 
एकदम  व्यर्थ  होती  हैं
जैसे  राजनीति  में  आ  कर  भी
साफ़-सुथरे  बने  रहना…

जैसे  काजल  की  कोठरी  में
जा  कर
श्वेत  वस्त्र  काले  किए  बिना
लौट  पाना

जैसे  विकास  की  गति  बढ़ा  कर
मंहगाई  को
नियंत्रण  में  रख  पाना
और  समाज  के  सभी  वर्गों  से
न्याय  कर  पाना

जैसे  गुरुग्रंथ  साहिब  के  उपदेशों  को
ठीक  से  समझ  कर  भी
पूंजीवादी  बने  रहना  !

                                                        ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 20 अक्तूबर 2013

असमानता का लोकतंत्र

जब  कुत्तों  की  सरकार  हो
तो  कौन  रोकेगा
भेड़ियों  को  शिकार  से ?

असमानता  का  लोकतंत्र
ऐसे  ही  चलता  आया  है
ऐसे  ही  चलेगा
आगे  भी

लेकिन  बहुत  देर  तक
नहीं  चल  सकता  ऐसे

एक  ही  मार्ग  है
जंगल  में  लोकतंत्र  बचाने  का
कि  सारे  हिंस्र  पशुओं  के
नख-दन्त  तोड़  दिए  जाएं…

जीवित  रहना  है
तो  उठाने  ही  होंगे
सारे  ख़तरे !

                                              ( 2013 )
                                     -सुरेश  स्वप्निल

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न्याय की मांग

क़िले  के  अवशेषों  में
भटकती  हैं  आत्माएं
युध्द  में  मारे  गए  सैनिकों  की …

वे  शत्रुओं  के  वंशजों  के  साथ-साथ
अपने  ही  राजा  के  वंशजों  को  भी
ढूंढ  रही  हैं
कोई  दो-तीन  सौ  वर्ष  से

वे  आत्माएं 
न्याय  चाहती  हैं  अपने  वंशजों  के  लिए
अपने  राजा  के  वंशजों  से
और  क्षमा  चाहती  हैं
उन  शत्रुओं  के  वंशजों  से
जो  मारे  गए  थे
उनके  हाथों …

शरीर  की  मृत्यु  के  साथ  ही
जीवित  हो  उठती  है
मनुष्य  की  प्रज्ञा
प्रकट  हो  जाते  हैं  सारे  रहस्य
सत्य-असत्य 
और  उचित-अनुचित  के  भेद…

शरीर  की  मृत्यु  का  अर्थ
न्याय  और  अन्याय  के  बीच 
अंतर  की  मृत्यु
नहीं  होता
और  न  ही  अपराध  और  दण्ड  के
प्रतिमान  मर  जाते  हैं

दण्ड  तो  भोगना  ही  होगा
यदि  अपराधी  नहीं
तो  उसकी  तमाम  पीढ़ियों  को
अपराध  के  अंतिम  चिह्न
नष्ट  होने  तक….

मैं  जानता  हूं  कि   मुझे
'प्रतिक्रिया वादी',  'संशोधन वादी'
'भाग्य वादी'  ….
और  पता  नहीं  किन-किन  नामों  से
पुकारा  जाएगा 
हो  सकता  है  कि  मुझे
'पक्ष-द्रोही',  'वर्ग-द्रोही'
या  'धर्म-द्रोही',  'देश-द्रोही'  भी
मान  लिया  जाए ….

क्या  मृत्यु  का  भय
इतना  बड़ा  है
कि  मनुष्य 
न्याय  की  मांग  छोड़  दे… ?

क्या  शताब्दियां  बीतने  से
ख़त्म  हो  जाते  हैं
अपराध ????

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

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