गुरुवार, 14 जनवरी 2016

क़स्बाई लड़कियां

क़स्बाई लड़कियां 
कविताएं लिखती नहीं 
वे रचती हैं कविताएं 
जीवन के इर्द-गिर्द 

तपते चूल्हे पर पकाती हैं 
बहुत सी छोटी-बड़ी कविताएं 

क़स्बाई लड़कियां 
छंद गढ़ते-गढ़ते 
महाकाव्य हो जाती हैं 
निर्विकार प्रेम को समर्पित !
                                                         (2016) 
                                                  -सुरेश  स्वप्निल 
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गुरुवार, 7 जनवरी 2016

देहांतरण की प्रक्रिया में

बहुत समय लगता है 
देहांतरण की प्रक्रिया में 
एक सम्पूर्ण युग 
कदाचित् 
बहुत कुछ ऊग जाता है 
नि-गोड़ी भूमि में !

मसलन, वे गुलाब
जो रोक लेते हैं तुम्हें
इस राह से आते-जाते...
सच
किसी ने नहीं रोपा था उन्हें
और वे खुंबियां भी
जिन्हें नहीं देखता कोई भी

पता नहीं
कितनी सारी संवेदनाएं
दबा जाते हैं
मिट्टी डालने वाले ...

देखो ! 
तुम जब गुज़रो इस राह से 
गाहे-बगाहे 
थोड़ी-थोड़ी मिट्टी डालते रहना 
और संभव हो तो 
कुछ पानी भी 

हां, मगर आंसू नहीं...

आंसू ख़त्म कर देते हैं 

सारी उर्वरता 
और सारी संभावनाएं 
नई नस्लों के जन्म की !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल