बुधवार, 18 दिसंबर 2013

पा सकूं एक नाम...!

मैं  जब  समुद्र  था
बहुत-से  आकाश  थे
मेरे  भीतर
अजेय,  अपरिमेय
असीम…
स्वयं  मेरे  अपने  विस्तार  से
कहीं  बहुत  अधिक  विशाल
अक्सर  मेरे  मनोबल  को
चुनौती  देते !

जब  मैं  सूर्य  था
तब
अनगिनत  नदियां  प्रवाहित  थीं
मेरे  अंतर्मन  की  अग्नि  को
शांत  करती
अपनी  शिशु-सहज  अठखेलियों  से
बहलाती  हुई   मुझे

मैं  जब  मनुष्य  था
मेरे  भीतर
सारे  समुद्र  थे
सारे  आकाश
और  सारी  नदियां
करोड़ों  आकाश-गंगाएं
तरह-तरह  की  संस्कृतियां
अबूझ,  अविस्मरणीय,
एक-दूसरे  से   जूझते  इतिहास
बनती-मिटती   सभ्यताएं ....


यह  प्रश्न  पूछा  जा  सकता  है
सहज  ही
कि  मैं  इतना  कुछ  होते  हुए  भी
क्यों  कभी  बचा  नहीं  पाया
अपनी  अस्मिता....

सम्भवत: ,  मैं  मात्र  एक विचार  ही  था
अविकसित,  अपरिपक्व
एक  अपूर्ण  शरीर
एक  भ्रमित  मस्तिष्क  में
बार-बार  सिमटता-फैलता
जन्म  लेता  और  मरता  हुआ ....

नहीं,  कोई  कथा  नहीं  है  मेरी
जिसे  कहा-सुना  जा  सके

अगली  बार  जब  जन्म  लूं
प्रयास  करूंगा 
कि  पा  सकूं  एक  नाम
स्पष्ट  और  सुनिश्चित....!

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

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