शनिवार, 14 दिसंबर 2013

क्या ज़रूरत थी...?

आ  रहा  है  विजय-रथ
लोकतंत्र  के  महा-रण   में
विजयी  महारथी  का
जीत  के  उन्माद  में  चूर
सिपाहियों  की  भीड़  के  साथ  …

गाजे-बाजे,  आतिशबाज़ी
और  जीत  की  सलामी  देती  बंदूकें
काफ़ी  हैं
दहशत  में  डालने  के  लिए
पराजित  प्रत्याशियों 
और  समर्थकों  को

कोई  नहीं  रोकेगा  इस  समय
इस  निर्लज्ज  प्रदर्शन  को
जो  ध्वस्त  करता  जा  रहा  है
तमाम  स्थापित  मूल्य
मान्यताएं  और  परम्पराएं

यदि  लोकतंत्र  का  महा संग्राम
इसी  तरह  संपन्न  होना  है
जहां  पराजितों  की  मनुष्यता
एक  ही  वार  में  नष्ट  कर  दी  जाए
और  उन्हें  गाजर-मूली  की  तरह
काट  डाला  जाए
और  विजेता  को
सरे  आम  लूट  का
अधिकार  दे  दिया  जाए
तो  क्या  ज़रूरत  थी
सामंतवाद  के  स्थान  पर
लोकतंत्र  लाने  की  ?

                                              ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

  …