रविवार, 16 जून 2013

शाह कियो बदजात !

( जनाब कलीम 'अव्वल' साहब की ख़िदमत में, बेहद ख़ुलूस और एहतराम के साथ )

                             दोहे
अल्लह   दीन्ही    आतमा    नजर  नवाजी  पीर
औरन    कोऊ    होइये    अपनो    शाह    कबीर

अंतर  बिच   झगड़ा  भया   को  जेठौ  को  छोट
मन  मूरख  अड़ियल  भया  आतम  काढ़े  खोट

जग  को  का  समझाइये    सब  मूरख  के  यार
का   कहिबो   का   बूझिबो   भै   जूतम    पैजार

साहिब    मेरौ    बावरो    दीन्हो    ज्ञान   लुटाय
जाकी    जेती    गाठरी   बांधि-बांधि   लै   जाय

काटि   कलेजा   लै   चले   का  खंजर  का  बात
कौन पाप कीन्हो  मुलुक  शाह  कियो  बदजात

साहिब   हम   मुरदा   भए   ठटरी   बांधो  कोय
माटी   की   पुतली   मुई   धाड़-धाड़  जग  रोय !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल


जंगल: दो कविताएं

जंगल: एक 


टूट  गया
शेर  और  भेड़िये  का 
गठबंधन !

इसमें  ख़ुश  होने-जैसी
कोई  बात  नहीं
ख़रगोशों !

वे  हिंस्र  थे
और  हिंस्र  ही  रहेंगे

वे  तो  अकेले  भी  बहुत  हैं
निरीह  शाकाहारियों  के  लिए !

जंगल: दो 

 

 क्रांतियां  मनुष्यों  की  बस्तियों  में
होती  हैं
मूर्ख  खरगोशो !

यहां,  जंगल  में
शेर  ख़त्म  भी  हो  गए  तो  क्या ?
चीते,  भालू,  भेड़िये
लकड़बग्घे  कम  हैं  क्या ?

तुम  जब  तक
छिपते  रहोगे  अपनी  मांदों  में
मारे  जाते  रहोगे
यूं  ही  बेमौत  !

ज़िंदा  रहना  चाहते  हो
तो  लड़ना
और  जीतना  सीखो।

                                                      ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल