मंगलवार, 26 नवंबर 2013

क्रांति के लिए ...!

उस  शिकायत  का
कोई  अर्थ  नहीं
जिसे  शासक-वर्ग  सुन  कर  भी
अनसुना  कर  दे

एक  व्यक्ति  की  आवाज़  का
यही  परिणाम  होता  है
अक्सर

क्रांति  के  लिए
एक  क्रांतिकारी  पार्टी  चाहिए
जन-जन  के  हृदय  में  पैठी  हुई
जिसकी  आवाज़
किसी  भी  रण-दुन्दुभि  से  तेज़  हो
जो  जब  उठे
तो  दिल  दहल  जाएं
सत्ताधीशों  के....

समझौता-परस्तों  के
सिर्फ़  जमावड़े  होते  हैं
छोटे-मोटे 
हित-साधन  के  लिए  !

क्रांति  चाहिए
तो  पार्टी  बनानी  ही  होगी
आत्म-बलिदानियों  की  !

                                            (2013)

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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सोमवार, 25 नवंबर 2013

झूठ के दम पर ...!

इतिहास
भूलने  की  चीज़  नहीं  होती
जब  तक  कोई  राष्ट्र
लज्जित  न  हो  अपने  अतीत  पर  !

ज़िंदा  राष्ट्र
नए  इतिहास  गढ़ते  हैं
अतीत  से  लज्जित  हुए  बिना
वर्त्तमान  से  मुंह  छिपाए  बिना
भविष्य  की  अनिश्चितता  से
डरे  बिना !

झूठ  के  दम  पर
न  राष्ट्र  बनते  हैं
न  संस्कृति

मिथक  नहीं
अध्याय  बनो
नए  इतिहास  का !

                                                  (2013)

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 24 नवंबर 2013

मनुष्य का दख़ल ...

एक  अव्यक्त  भय 
फैला  हुआ  है
वातावरण  में
जैसे  समुद्र  के  जल  में
ज्वार-भाटे  तक  नहीं  आते
सही  समय  पर
शहर  और  गांवों  में
पक्षी  भी  दिखाई  नहीं  देते
वनों  में
हिंस्र  पशु  भी  चुपचाप  पड़े  रहते  हैं
अपनी  भूख  दबा  कर…

मनुष्य  का  दख़ल
बढ़ता  ही  जा  रहा  है
प्रकृति  के  हर  क्षेत्र  में
तथाकथित  विकास  के  नाम  पर
ध्वस्त  किए  जा  रहे  हैं
सारे  संतुलन    

पता  नहीं
कुछ  मनुष्य  अथवा  समूहों  की
समृद्धि  की  अतृप्त  आकांक्षाएं
कौन  से  दिन  दिखाएंगी
प्रकृति, पर्यावरण
और  स्वयं  मनुष्यता  को  !

                                                                   (2013)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

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शनिवार, 23 नवंबर 2013

शर्म आती है नागरिकों को ...

आंखों  की  आदत  बिगड़  गई  है
शायद
या  चश्मे  में  कुछ  ख़राबी
आ  गई  है
कुछ  भी  अच्छा,  शुभ
या  सुंदर  दिखाई  नहीं  देता
आजकल

या  सचमुच  हालात
इतने  ही  ख़राब  हो  गए  हैं
देश  के

हर  तरफ़ 
सूखे,  मुरझाए  चेहरे
गड्ढों   में  धंसी  आंखें
फटे-पुराने,  अपर्याप्त  कपड़े  पहने
सुबह  से 
दो  वक़्त  के  खाने  की  जुगत  में
लगे  हुए  बच्चे …

दूसरी  ओर
निर्लज्ज्ता  की  सीमाएं  लांघती
समृद्धि
स्वप्न  से  भी  बाहर  हो  चुके
ऊंचे,  वैभवशाली  मकान
फ़ुटपाथ  पर  सोते  हुए
अक्सर 
किसी  मदांध  रईस  की  गाड़ी  से
नींद  में  ही  मारे  जा  चुके
ग़रीब-मज़दूर....

और  विकास  के  झूठे  सपने
दिखाते  तथाकथित  जन-प्रतिनिधि
सीधे-सरल  जीवन  की
तमाम  संभावनाएं 
नष्ट  करती  हुई  सरकारी  नीतियां....

आख़िर  क्यों
इसी  देश  में  जन्म  लेना
ज़रूरी  था मुझे ???

यहां  तो  शर्म  आती  है
नागरिकों  को
अपने  अधिकार  की 
लड़ाई  लड़ते  हुए...!

                                               (2013)

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

हर चुनाव में... !

शोर  थमा  नहीं  है  अभी
चुनाव  का
सुबह  होने   से  पहले  ही  आ  जाते  हैं
हर  दल  के  प्रत्याशियों  के  वाहन
अपने-अपने  नारे  और  फूहड़  गीतों  को
लाउडस्पीकर  पर  बजाते  हुए....

बहुत  से  क़ानून,  बहुत  से  नियम  हैं
आम  आदमी  को  शोर  से  बचाने   के
न  कोई  जानता  है  न  मानता  है
न  ही  किसी  की  रुचि  है
क़ानून  के  पालन  में ....

जब  पालन 
सुनिश्चित  नहीं  किया  जा  सकता
तो  बनाते  क्यों  हैं
तरह-तरह  के  नियम-क़ानून ?!!

किसी  को  नहीं  पता
कि  कुल  कितने  आम  आदमी
खो  देते  हैं  अपनी  श्रवण-शक्ति
हर  चुनाव  में !

                                                      (2013)

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

सारा देश श्मशान ...!

यदि  जनता  के  मन  को
भांप  पाना 
इतना  आसान  होता
तो  कोई  भी  सरकार  कभी
सत्ता  से  बाहर  न  होती !

यदि  जनता  नृशंस  हत्यारों  के  इरादों  से
परिचित  न  होती
तो  सारा  देश
श्मशान  बन  गया  होता

यदि  जनता  के  ऊपर  राज  करने  का  सपना
देखने  वाले
ज़रा-से  मनुष्य  भी  होते
तो  सर-आंखों  पर  न  बिठा  लेती  जनता ?!!!

                                                                     ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

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बुधवार, 20 नवंबर 2013

किसलिए, जहांपनाह ?

क्या  कोई  बता  सकता  है
कि  बंदूक़  से  निकली  गोली
किसकी  जान  लेगी
खेत  में  छुपा  हुआ  सांप
किसको  डसेगा
खूंटे  से  छूटा  हुआ  पागल  सांड़
किसको  रौंदेगा
रैबीज़  से  परेशान
आवारा  पागल  कुत्ता
किसको  काटेगा
किसके  हिस्से  में  आएगी
ज़मीन   में  दबी  हुई  सुरंग ???

मौत  उसी  जगह
उसी  दिन
उसी  समय  आएगी
जहां  तय  होगी

तय  न  हो  तो
ठोकर  भी  नहीं  लगती  पांव  में !

फिर  यह  सुरक्षा  किसलिए,  जहांपनाह ?
किसका  भय  है  शाहे-आलम
किसके  नाम  से  थर-थर  कांप  रहे  हो
तुम,  ता  ना  शा  ह !!!!

                                                              ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

सात आकाश भी कम...

वह  नृशंस  हत्यारा
जब  भी  खाना  खाने 
बैठता  है
अपने  कारनामों  का  वीडिओ
चला  लेता  है

उसे  अपने  गुर्ग़ों  के
काटो-मारो  के  स्वर
वैदिक  ऋचाओं  जैसे  लगते  हैं
और  वह
अपने-आप  को
देवासुर  संग्राम  का  महानायक
समझने  लगता  है

भय  से  थर-थर  कांपते
अंग-भंग  किए  जाते
ज़िंदा  जलाए  जाते
मनुष्यों  के  आर्त्तनाद
उसकी  भूख  बढ़ा  देते  हैं
और  वह  अपनी  रक्त  की  प्यास  बुझाने
नए  तरीक़े  सोचने  लगता  है …

वह  दिग्विजय  करने  निकला  है
सारे  देश  में
नए  गुर्ग़े  और  नए  शिकार
तलाश  करने…

वह  जहां-जहां  जाता  है
आस-पास  के  सारे  रक्त-पिपासु
इकट्ठे  हो  जाते  हैं
प्रेरणा  लेने

मनुष्यता  के  लिए
सबसे  बड़ा  संकट  है
एक  निर्लज्ज  तानाशाह
सात  आकाश  भी  कम  हैं
उसकी  निर्लज्ज्ता  ढंकने  के  लिए !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 18 नवंबर 2013

तुम्हारे हाथ के पत्थर ...!

चलो  बस  भी  करो
बातें  बहुत-सी  हो  चुकीं
आ  जाओ  अब
मैदान  में  ....

देखो
तुम्हारे  शत्रुओं  के  पास
क्या-क्या  है
नए  हथियार  हैं
तकनीक  है
रणनीतियां  हैं
सब  तरफ़  से  घेरने  को
ड्रोन  हैं
बम  हैं
रसायन  हैं
तुम्हें  अंधा  बनाने  को
तुम्हारे  घर  जलाने  को
तुम्हारे  हाथ-पांव  तोड़  कर
लाचार  करने  को
भयानक  सर्दियों  में
बर्फ़-सा  पानी
तुम्हारी  चेतना  का  सर  झुकाने  को ....

तुम्हारे  पास  भी  तो  है
बहुत-कुछ
स्वप्न  हैं  आकांक्षाएं  हैं
जलन  है  क्रोध  है
बेचैनियां  हैं  भावनाएं  हैं
सड़क  पर  ढेर  से  पत्थर  पड़े  हैं
हाथ  ख़ाली  हैं …

तुम्हारे  हाथ  के  पत्थर  बहुत  हैं
शत्रु-सेना  का
मनोबल  तोड़ने  को …!

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 16 नवंबर 2013

मरना ही चाहो !

बहुत  शौक़  है  न  तुम्हें
सच  बोलने
जानने  और  समझने  का
तो  तय  कर  लो
कि  कब  और  कैसे  मारे  जाना
पसंद  करोगे....

जीने  कौन  देगा  तुम्हें
न  सरकार,  न  पूंजीपति
न  ग़ुंडे-बदमाश

अदालत  भी  क्या  करेगी
दो  सिपाही  तैनात  करवा  देगी
सुरक्षा  के  नाम  पर
जो  मौक़ा  मिलते  ही  बिक  जाएंगे
तुम्हारे  दुश्मनों  के  हाथों !

पढ़े-लिखे  हो
बेहतर  है  नौकरी  कर  लो
किसी  पूंजीपति  के  यहां
कहो  तो  चपरासी  बनवा  दें
नगर-पालिका  में

कहां  पड़े  हो
सच-झूठ  के  चक्कर  में
भविष्य  देखो  अपना
और  अपनी  संतानों  का  !

अब  अगर  मरना  ही  चाहो
तो  तुम्हारी  मर्ज़ी !

                                        ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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कठपुतलियों के इरादे !

ये  कठपुतलियां  कौन  हैं
जिनकी  न  डोर  दिखाई  देती  है
न  डोर  थामने  वाली  उंगलियां
मगर
जिनकी  एक-एक  गति  पर
उथल-पुथल  हो  उठता  है
पूरा  देश  ?!

बहुत  भयंकर  हैं
इन  कठपुतलियों  के  इरादे
और  उनसे  भी  भयानक  हैं
इन्हें  नचाने  वाली  उंगलियों  की  गतियां
वे  हिलती  हैं  तो  कहीं  न  कहीं
गिरने  लगती  हैं
लाशें !
लोग  जैसे  भूल  ही  जाते  हैं
कि  वे 
जीते-जागते,  बुद्धिमान  मनुष्य  हैं
कठपुतलियां  नहीं  हैं  महज़....

वे  अपना  नाम-पता,
धर्म-संस्कृति,  इतिहास  और  वर्त्तमान
सब  कुछ  भूल  जाते  हैं
और  तब्दील  होते  चले  जाते  हैं
मानव-बमों  में !




नहीं,  सिर्फ़  सपने  देखने

और  सपने  में  डर  जाने  से  नहीं  चलेगा
अब  तलाशने  ही  होंगे 
इन  कठपुतलियों  को  नचाने  वाले  धागे
और  वे  बदनीयत  हाथ
तोड़  देनी  होंगी  वे  उंगलियां
जिनके  वीभत्स  संकेतों  पर
नष्ट  होती  जा  रही  है
संसार  के  श्रेष्ठतम्  युवाओं  की
पूरी  की  पूरी  पीढ़ी  !

सिर्फ़  सच्चे  देशभक्त  ही
बचा  सकते  हैं  अब  इस  देश  को !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

सेठ की जूठन चाटे बिना ...!

सब  खाते  हैं
सेठ  का  दिया  हुआ

ज़ार  भी
ज़ार  के  दुश्मन
और  उनके  भी  दुश्मन....

लगता  ऐसा  है
कि  सेठ  की  जूठन  चाटे  बिना
भूखे  न  मर  जाएं
देश  के  सियासतदां !

बहुत  थोड़े  ही  हैं
हालांकि
सेठ  का  दिया  खाने  वाले
कोई  1000-1200
या  शायद  12000  या  120000 …
मगर  इतने  ही  भिखारियों  के  दम  पर
सेठ  1200000000   मेहनतकश  इंसानों  के  गले
छुरी  फेरता  रहता  है
साल  दर  साल  !

मगर  इस  बार
मेहनतकश  भी  तैयार  हैं
सेठ 
और  उसके  दलाल
भिखारियों  के  अरमानों  पर
पानी  फेरने  के  लिए !

जो  भी  हो
इस  बार  चूक  जाने  वाला
हारेगा  तो  जीवन-भर  के  लिए

और  जनता  बिल्कुल  तैयार  नहीं  है
इस  बार
सेठ  और  उसके  दलालों  को
बख्शने   के  लिए !

                                                         (  2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 11 नवंबर 2013

अपनी सेनाएं ले आओ !

शत्रुओं  के  रक्त  की  प्यास
क्या  इतनी  अमानवीय  होती  है
कि  पीढ़ी-दर-पीढ़ी
खोखला  करती  चली  जाए
मनुष्य  के  गुण-सूत्रों  को
और  फिर  भी
अतृप्त  ही  रह  जाए  ???

मुझे  विश्वास  है
कि  मेरी  ही  भांति
आपमें  से  अधिकांश
जूझ  रहे  होंगे  इसी  प्रश्न  से....

यहीं  कहीं  है  वह
पवित्र  बोधि-वृक्ष
जिसकी  छाँह  में  बैठ  कर
सिद्धार्थ  गौतम  बन  जाते  हैं
गौतम  बुद्ध
यहीं  कहीं  है
वह  लिच्छवियों  की  राजधानी
जिसका  भावी  शासक
सर्वस्व  त्याग  कर
हो  जाता  है  दिगंबर
यहीं  है  वह  कलिंग  का  युद्ध-क्षेत्र
जहां  शत्रुओं  के  शव  देख  कर
सम्राट  अपना  राज-पाट  छोड़  कर
धर्म  का  शरणागत  हो  जाता  है…

अरे  हां,
पवित्र  साबरमती  तो
तुम्हारे  घर  के  आसपास  ही
बहती  है  न  कहीं ???

यदि  इतने  उदाहरण  सामने  होते  हुए  भी
अतृप्त  है
तुम्हारी  मानव-रक्त  की  तृष्णा
तो  मैं  तैयार  नहीं  हूं
यह  मानने  को
कि  तुम  और  मैं
एक  ही  देश
एक  ही  धर्म 
एक  ही  प्रजाति  के  जीव  हैं  !

तुम  अपनी  सेनाएं  ले  आओ
मैं  तुम्हें  अस्वीकार  करता  हूं
अपने  प्रतिनिधि  के  रूप  में  !!!

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

किस क़दर झूठ...!


एक  चम्मच  से  दूध  पीने  वाला
दूसरे  को  शौक़  है  नस्ल  के  आधार  पर
जनसाधारण  के  नरसंहार  का....

सोच  कर  बताइए  अच्छी  तरह  से
कि  ऐसे  ही  शासनाध्यक्ष  चाहिए  क्या
आपको ???

पहले  को  यह  भी  नहीं  पता
कि  कहां  होता  है
बेर  का  मुंह
दूसरा  दावे  के  साथ  कहता  है
कि  आलू, टमाटर  सारे  देश  में  जाते  हैं
उसके  राज्य  से  !

पहला  शान  से  बताता  है
कि  उसकी  सरकार  ने
सबको  अधिकार  दे  दिया  है
भरपेट  भोजन  का !
दूसरा  उससे  भी  चार  क़दम  आगे
अपने  दल  की  सरकारों  के
गुणगान  में

आप  सब  जानते  हैं
कि  किस  क़दर  झूठ  बोलते  हैं  दोनों

प्याज़  क्या  भाव  मिल  रही  है
आजकल
आपके  शहर  में  ?
आपको  याद  है  कि  अमूल  के  दूध  का  भाव
क्या  था
आज  से  दस  साल  पहले ????

                                                                ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

डोर खींचने वाले ...!

वहां  बैठे  हैं
डोर  खींचने  वाले
वॉशिंग्टन
नागपुर
और  मुम्बई  में....

सब  जानते  हैं
कि  अपनी  मर्ज़ी  से
हिल  भी  नहीं  सकतीं
कठपुतलियां…!

डोर  खींचने  वाले
तय  करते  हैं
कठपुतलियों  की  हर  गतिविधि
यह  भी
कि  कुल  कितनी  जानें  ली  जाएंगी
लोकतंत्र  के  महा-उत्सव  में
कैसे  नियंत्रण  में  रखी  जाएंगी
कठपुतली-सेनाएं
कितनी  ख़ुराक़  ज़रूरी  है
इन  मनुष्य-भक्षी  कठपुतलियों  के  लिए !

सवाल  यह  भी  है
कि  अपने  ख़ून-पसीने  से
देश  का  भाग्य  गढ़ने  वाले
क्या  सचमुच  इतने  बेचारे  हैं
कि  तोड़  न  सकें
कठपुतलियों 
और  उनकी  डोर  हाथ  में  रखने  वालों  के
देश-द्रोही  कुचक्र ???

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

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गुरुवार, 7 नवंबर 2013

कोई हथियार रख लो !

घर  से   बाहर  निकलो
तो  जांचते  जाना
कि  कहीं  कैमरे  तो  नहीं  लगे
 आबादी  से  दूर  आते  ही
ध्यान  रखना
कि  पांव
ज़मीन  में  दबी  सुरंगों  पर
न  पड़   जाए

जहां  कहीं  भी  भीड़  जमा  देखो

चुपचाप  गुज़र  जाना

इस  दुर्द्धर्ष  समय  में
कोई  भरोसा  नहीं
कि  पुलिस
कहां  'एनकाउंटर'  कर  दे
यह  भी  भरोसा  नहीं
कि  पकड़  कर  जेल  में
न  डाल  दिए  जाओ  …

कोई  भी  ग़ुंडा-बदमाश
कहां  गोली  मार  दे
या  अगर  तुम  खाते-पीते  घर  के
नज़र  आते  हो
तो  अपहरण  न  कर  लिया  जाए
तुम्हारा  !

देखो,  समय  सचमुच  अच्छा नहीं  है
आम  आदमी  के  लिए  !
बेहतर  है,  अपने  साथ
कोई  हथियार  रख  लो
सुरक्षा  के  लिए  !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 3 नवंबर 2013

कैसा यह परिवर्त्तन ?

शोर  उठा  है  इस  नगरी  में  फिर  दीवाली  आई  है
कुछ  दीवाने  चीख़  रहे  हैं  लो  ख़ुशहाली  छाई  है

समय  बांसुरी  मौन  पड़ी  है  देख  टूटती  हर  आशा
कौन  कुबेर  भला  समझेगा  आहत  स्वरलिपि  की  भाषा

विद्युत् -मणियों  की  मालाएं  चूम  रहीं  तारों  के  मुख
माटी  के  दीपक  रोते  हैं  देख-देख  कुटियों  के  दुःख

दरबारों  में  गीत  सुनाते  हैं  चारण  आंखें  मींचे
भूख  भूख  का  आर्त्तनाद  है  विरुदावलियों  के  पीछे

जलें  झोंपड़े  मज़दूरों  के  धरती  मां  के  भाग  जले
लोकतंत्र  यह  कैसा  जिसमें  मजबूरों  पर  आग  चले

बने  सारथी  जो  प्रकाश  के  काले  उनके  भाग  हुए
विश्वासों  के  उजले  मोती  पल  में  जल  कर  राख़  हुए

राजमहल  की  जगमग-जगमग  लूट  रही  सारा  गौरव
और  झोंपड़ी   गुमसुम-गुमसुम  झेल  रही  सारा  रौरव

यह  प्रकाश  का  न्याय  नहीं  है  अंधियारे  का  नर्त्तन  है
हाय ! रौशनी  भूल  गई  सब  कैसा  यह  परिवर्त्तन  है  !

नहीं  नहीं  मत  कहो  रौशनी  यह  पागल  अंधियारा  है
सूरज  के  बेटों  को  इसने  गला  घोंट  कर  मारा  है

सदियों  से  जारी  शोषण  का  बदला  तो  लेना  होगा
अब  बलिदान  ज़रूरी  है  आगे  आ  कर  देना   होगा !

                                                                         ( दीवाली, 1975 )

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

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शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

जब तक जीवित है संविधान !

'भारत  एक  सार्वभौम, लोकतांत्रिक,
धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी  देश है…!'

सुन  रहे  हो
पूंजीवाद  के  झंडाबरदारों ?
ओ  नीली  पगड़ी  वालों,  सुन  रहे  हो ?
'समाजवादी'… 'पूंजीवादी'  नहीं। …

और  तुम  सुन  रहे  हो  या  नहीं
हिटलर  के  चेलों
काली  टोपी  वालों !
'धर्म-निरपेक्ष' … 'हिन्दू  राष्ट्र'  नहीं  !

जब  तक  संविधान  जीवित  है
भारत  का
तब  तक
या  तो  संविधान  का  पालन  करो
या  देश  छोड़  दो !

चार  पूंजीपतियों  के  वोटों  से
नहीं  बनती  सरकार
किसी  भी  लोकतांत्रिक  देश  में
न  ही  कोई  अमरीकी  आने  वाला  है
तुम्हारी  सहायता  को !

ओ  महामूर्खों !
ज़रा  अपनी  स्मरण-शक्ति  को  टटोलो
और  याद  करो
1977, 1996, 2004 को

सरकार  तो
आम  आदमी  ही  बनाएगा
भारत  में
जब  तक  जीवित  है  हमारा  संविधान !

जिसे  मुग़ालता  हो
अपने  महानायकत्व का
वह  आ  जाए  नीचे
यथार्थ  के  धरातल  पर !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

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