रविवार, 23 जून 2013

बोलते क्यों नहीं ? !

त्रासदी  यदि  वैयक्तिक  हो
तो  स्वयं  भुक्त-भोगी  भी  भूल  जाता  है
थोड़े-बहुत  समय   के  बाद
किंतु  इतनी  बड़ी,
सामूहिक  त्रासदी  ....

असंभव  है  कि  कोई  भूल  पाए !

क्या  कोई  भूल  सकता  है
बंगाल  का  दुर्भिक्ष
या  बर्मा  का  प्लेग
या,  भोपाल  गैस-त्रासदी ?

निश्चय  ही,
कई  शताब्दियों  तक
कई-कई  पीढ़ियों  तक
दोहराती  रहेंगी  केदारनाथ  का  जल-प्रलय
प्रकृति  के  भयंकर  प्रतिशोध
और  इस  त्रासदी  के  लिए  उत्तरदायी
व्यक्तियों  और  अ-नीतियों  की  महा-गाथाएं ...

आप  सुन  रहे  हैं
समझ  रहे  हैं  न ?

तो  कुछ  बोलते  क्यों  नहीं ? !

                                                          ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 




शनिवार, 22 जून 2013

अगले रण में जीतेगी जनता !

एक  सीधा-सपाट  बयान  है  यह
तुम्हारे  तथाकथित 
लोकतंत्र  के  अंतिम  छोर  पर  बैठे
आम  आदमी  का
वही  जिसके  नाम  पर
तुम्हारी  निर्बाध, निरंकुश  सत्ता  का  जाल
फैला  हुआ  है
पृथ्वी  से  आकाश  तक…

सुनो,  तानाशाह  !
हमने  अगर  चुना  भी  था  तुम्हें
तो  इसलिए 
कि  तुम्हारे  शब्द  और  वस्त्र
मनुष्यों  की  भांति  दीखते  थे
कि  तुम  वही  भाषा  बोल  रहे  थे
जो  सुनना  चाहते  थे  हम,
इस  लोकतंत्रात्मक  देश  के  असली  मालिक
हम  जो  चाहते  थे  कि
हमारा  प्रतिनिधि  हमारी  बात  सुने,
समझे  और  उसके  अनुरूप
नीतियां  बना  सके
और  नीतियों  को  कार्य-रूप  में
परिणत  कर  सके

हम  छले  गए
तुम  और  तुम्हारे  क्रीत  प्रचार-तंत्र  के  हाथों

तुमने  अपने  हर  वचन  को  भंग  किया
हर  वादे  को  तोड़ा
हर  बात  से  मुकर  गए
और  सेवक  से  अचानक  मालिक  बन  गए !

तुम  यह  भूल  गए
अत्यंत  सुविधाजनक  रूप  से
कि  यह
संसार  की  सबसे  विशाल  जनसंख्या  है
जिसने  हर  उस  तानाशाह  को
शिकस्त  दी  है
जिसके  राज  में  किम्वदंती  थी
सूरज  के  नहीं  डूबने  की ....

तुम  यदि  नहीं  जानते  तो  सुन  लो
तुम्हारा  सूर्यास्त  होने  को  है
कुछ  ही  क्षण  बाद ....

कल 
जब  तुम्हारी  अजेय  सेना
थके-हारे  क़दमों  से  लौटेगी
अपने  शिविर  में
तो  किस  तरह  तैयार  करोगे  उसे
अगले  रण  के  लिए ?

तुम  हार  गए,  तानाशाह !
स्वयं  अपनी  ही  ग़लतियों  से !

अगले  रण  में
जीतेगी  जनता
सिर्फ़  और  सिर्फ़  जनता !

                                                    ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 





शुक्रवार, 21 जून 2013

बाढ़: कुछ दृश्य

           एक 

रात-दिन  चल  रहे  हैं 
राहत  और  बचाव  के  प्रयास 

उड़  रहे  हैं  हेलिकॉप्टर 
भोजन  और  पानी  के  पैकेट 
गिराते  हुए 
लाशों  के  ढेरों  पर… 

जीवित  बचे  हुए 
भटक  रहे  हैं 
अबूझ  जंगलों  में 
जीवन  और  मृत्यु  दोनों  को 
छलते  हुए ....!

पता  नहीं 
पहुंच  भी  पाएंगे  
या  नहीं 
राहत  शिविरों  तक  !


                दो

दिल्ली  में  सब  के  सब 
चिंता-मग्न  हैं  
बाढ़  से  निबटने  के  तरीक़े 
ढूंढने  में 

केदारनाथ  में  गिद्ध  मंडरा  रहे  हैं 
नई-नई  लाशों  के  प्रकट  होने  की 
प्रतीक्षा  में  !


            तीन

कौन  कह  सकता  है  कि  कल  गंगा 
प्रतिगामिनी  हो  कर 
रायसीना  हिल्स और  लुट्येंस  ज़ोन  तक 
नहीं  पहुंचेगी  ?

कौन  कह  सकता  है  कि  दिल्ली 
नहीं  उजड़ेगी  फिर  से 
दस  से  अधिक  तीव्रता  के  
भूकंप  से  ?

क्षण-क्षण  मृत्यु  की  ओर 
बढ़ती  हुई 
राजधानी  के  लोग 
इतने  निश्चिंत  कैसे  हो  सकते  हैं 
उत्तराखंड  की  हालत 
देखने  के  बाद ?


                    चार 

देखते-देखते  
श्मशान  में  बदल  गए 
चार  सौ  गांव 

देखते-देखते 
मृत्यु  का  ग्रास  बन  गए 
हज़ारों  जीवित  मनुष्य 
पशु-पक्षी  और  पेड़-पौधे 
निरंतर  चेतावनियों  के  बावजूद ....

शर्म  से  मरे  नहीं  अब  तक 
बाढ़  को 
बस्तियों  तक  
लाने  वाले  !

                                                   ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल


बुधवार, 19 जून 2013

इन डरावनी उपत्यकाओं में....

मिट्टी  के  इन  ढूहों  को
ध्यान  से  देखिए
इन्हीं  में  कहीं  दबा  है
एक  शहर !

विध्वंस  की  महागाथा  छिपी  है
इन्हीं  टीलों  में  कहीं
आत्म-विनाश  की  प्रवृत्ति  के  प्रमाण
आत्म-घाती  विकास  की  अवधारणाएं
मनुष्य  के  अ-मनुष्य  होते  जाने
और  मूल्यों  के  पतन  की  कहानियां ....

यहीं  कहीं  दबे  पड़े  हैं
गर्वोन्नत  सभ्यता 
और  तथाकथित  महानतम  संस्कृति  के
नष्टप्राय  अवशेष ....!

प्रकृति  तो  बार-बार  चेताती  थी
हम  ही  अनसुना  करते  रहे ....

अंततः,  क्या  ढूंढने  आए  हैं  हम
इन  डरावनी  उपत्यकाओं  में  ?

                                                       ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 


मंगलवार, 18 जून 2013

नदी का मार्ग मत रोको !

नदी  का  मार्ग  मत  रोको
उसे  आता  है
मार्ग  की  हर  बाधा  को  हटाना
और  नए  मार्ग  की  खोज  करना

नदी  का  मार्ग  मत  रोको
उसे  पता  है  कहां-कहां  सूराख़  हैं
तुम्हारी  योजनाओं  में
और  कितना  मैल  जमा  है
तुम्हारे  मन-मस्तिष्क  की  तलहटी  में

नदी  यूं  ही  नहीं  बहती  आ  रही  सदियों  से
वह  तुम्हारी  हर  चाल  से  परिचित  है
और  जानती  है
जीतने  के  सारे  गुर

नदी  से  बैर  मत  लो
वह  बहुत  शक्तिशाली  है  तुमसे

नदी  का  मार्ग  मत  रोको
उसे  बहना  आता  है
और   बहा  ले  जाना  भी  !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल


रविवार, 16 जून 2013

शाह कियो बदजात !

( जनाब कलीम 'अव्वल' साहब की ख़िदमत में, बेहद ख़ुलूस और एहतराम के साथ )

                             दोहे
अल्लह   दीन्ही    आतमा    नजर  नवाजी  पीर
औरन    कोऊ    होइये    अपनो    शाह    कबीर

अंतर  बिच   झगड़ा  भया   को  जेठौ  को  छोट
मन  मूरख  अड़ियल  भया  आतम  काढ़े  खोट

जग  को  का  समझाइये    सब  मूरख  के  यार
का   कहिबो   का   बूझिबो   भै   जूतम    पैजार

साहिब    मेरौ    बावरो    दीन्हो    ज्ञान   लुटाय
जाकी    जेती    गाठरी   बांधि-बांधि   लै   जाय

काटि   कलेजा   लै   चले   का  खंजर  का  बात
कौन पाप कीन्हो  मुलुक  शाह  कियो  बदजात

साहिब   हम   मुरदा   भए   ठटरी   बांधो  कोय
माटी   की   पुतली   मुई   धाड़-धाड़  जग  रोय !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल


जंगल: दो कविताएं

जंगल: एक 


टूट  गया
शेर  और  भेड़िये  का 
गठबंधन !

इसमें  ख़ुश  होने-जैसी
कोई  बात  नहीं
ख़रगोशों !

वे  हिंस्र  थे
और  हिंस्र  ही  रहेंगे

वे  तो  अकेले  भी  बहुत  हैं
निरीह  शाकाहारियों  के  लिए !

जंगल: दो 

 

 क्रांतियां  मनुष्यों  की  बस्तियों  में
होती  हैं
मूर्ख  खरगोशो !

यहां,  जंगल  में
शेर  ख़त्म  भी  हो  गए  तो  क्या ?
चीते,  भालू,  भेड़िये
लकड़बग्घे  कम  हैं  क्या ?

तुम  जब  तक
छिपते  रहोगे  अपनी  मांदों  में
मारे  जाते  रहोगे
यूं  ही  बेमौत  !

ज़िंदा  रहना  चाहते  हो
तो  लड़ना
और  जीतना  सीखो।

                                                      ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 




शनिवार, 15 जून 2013

समय के विरुद्ध

कुछ  लोग
सदा  समय  के  पीछे  चले
अत्यंत  विनम्र,  मौन
चींटियों  की  भांति  पंक्ति-बद्ध
समय  की  जूठन  पर
जीते  हुए
और  भुला  दिए  गए
मरी  हुई  चींटियों  की  भांति

कुछ  लोग  समय  के  आगे-आगे
दौड़  लगाते  रहे
और  थक  कर
सो  गए  बीच  राह  में
और  कुचले   गए
समय  के  पांवों  के  नीचे

कुछ  लोग  जो  अधिक  बुद्धिमान  थे
समय  के  साथ-साथ  चले
शरणागत  हो  कर
मिमियाते  हुए 
और  मारे  गए
क्रांति  के  प्रथम  शिकार  हो  कर

लेकिन  कुछ  लोग  थे
जो  समय  के  विरुद्ध
लोहा  ले  कर  खड़े  थे
चुनौती  बन  कर
वे  लड़े
अपनी  पूरी  चेतना  और  वीरता  के  साथ
कुछ  खेत  रहे
कुछ  जीत  गए
कुछ  हार  गए ....

वे  सब  के  सब
इतिहास  में  अपनी  जगह  बना  गए
नायकों  के  रूप  में !

                                                                 ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 


बुधवार, 12 जून 2013

बनी रहे शांति

हां, हम  जानते  हैं  कि  तुम
संकट  में  हो
और  ज़रूरत  है  तुम्हें
समर्थन  की ....

हम  भले  पुरुष
मिट्टी  के  माधव
और  तो  क्या  करें
आशीष  देते  हैं  तुम्हें
चाहे  जितनी  भी  सहनी  पड़ें
हमारी  ज़्यादतियां
हमारी  मजबूरियां
कि  बनी  रहे  शांति
घर  और  समाज  में

क्योंकि  सहना
सिर्फ़  तुम्हें  ही  आता  है
लड़कियों !

                                                       ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल


सोमवार, 10 जून 2013

सपने डर गए हैं

सपनों  को  क्या  हो  गया  है  ?
आँखों  से  चलते  हैं
और  उड़  कर
मोबाइल  टॉवर  पर  बैठ  जाते  हैं

शायद  सपनों  की  दुनिया  सिकुड़  गई  है
वे  नहीं  चाहते
कि  पंखों  को  तकलीफ़  हो
वे  शायद  उड़ना  ही  नहीं  चाहते
या  उड़ें  भी  तो  वहीं  तक
जहां  से  घोंसला  दिखाई  पड़ता  हो ....

सपने  डर  गए  हैं
वैज्ञानिकों  के  बयानों  से
कहा  जाता  है  कि  सपनों  की
प्रजनन-क्षमता
कम  हो  गई  है
लगभग  शून्य  के  बराबर !

क्या  सपनों  की  सभी  प्रजातियां
नष्ट  हो  जाएंगी
गौरैयों  की  तरह  ?

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 


रविवार, 9 जून 2013

मैं बड़ा होने लगा !

मैंने  पहाड़  की  ऊंचाई  देखी
और  डर  गया
मैंने  समुद्र  की  गहराई  देखी
और  भी  डर  गया
मैंने  मरुस्थल  का  विस्तार  देखा
और  उसमें  चलती  धूल-भरी  आंधियां  भी
और  बहुत  ज़्यादा  डर  गया ...

एक-एक  कर  चुनौतियां  मेरे  सामने  आती  रहीं
और  मैं  हर  चुनौती  से  डरता  रहा

धीरे-धीरे  चुनौतियां  बड़ी  होती  गईं
और  मैं  उतना  ही  छोटा ...

जिस  दिन  मैंने  अपने  छोटे  होते  जाने  को
महसूस  किया
उसी  दिन
मैं  बड़ा  होने  लगा !

आज मुझे  पता  नहीं 
कि  चुनौती  शब्द
किस  भाषा  का  है !

शनिवार, 8 जून 2013

जंगलियों का देश

पता  नहीं  कि  कब
देश  हुआ  करता  था
सोने  की  चिड़िया ...
हमने  जो  समय  देखा  है  उसमें
सिर्फ़  बदहाली  ही  रही  है
नागरिकों  की  नियति !

कहते  तो  हैं  कि  लोकतंत्र  है  यहां
'लोक'  का  अर्थ  संभवतः  वही  होता  है
जो  कभी  शिकारी  के  लिए
शिकार  का  होता  था

हर  पांच  वर्ष  में  निकलती  हैं
हांका  लेकर
शिकारियों  की  टोलियां
और  मार  लाती  हैं
अगले  हांके  तक  के  लिए
पर्याप्त  जानवर !

जब  देश  जंगलों  और  जंगलियों  का  देश  था
तो  शायद  कहीं  बेहतर  था
जब  देश  जंगलों  और  जंगलियों  का  देश  था
तो  लोग 
और  शासन  चलाने  वाले
कहीं  ज़्यादा  मनुष्य  होते  थे ....

                                                               -( 2013 )

                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शुक्रवार, 7 जून 2013

भेड़िये: तीन लघु कविताएं

भेड़िये : एक 

भेड़िये  को  सौंप  दी  गई  है 
जंगल  की  कमान 

खरगोशों !
सावधान  रहो 
बहुत  सोच-समझ  कर  
निकलना 
मांद  से !

 

भेड़िये : दो 

भेड़ियों  से  कहो 
हुआ-हुआ   न  करें 
अभी  से 

बहुत  दूर  हैं  अभी 
चुनाव !

भेड़िये : तीन

भेड़िये  बहुत  कम  हैं  
संख्या  में
और  भेड़ें  असंख्य 

दस-दस  भेड़ें  काफ़ी  हैं 
एक-एक  भेड़िये  के  लिए 

तो  टूट  पड़ो 
भेड़ों !
देर  किस  बात  की  है  ?

                                             ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल


बुधवार, 5 जून 2013

कोई सपूत सुनता है ? ? ?

विश्व  पर्यावरण  दिवस  पर  विशेष

रोती  है 
माँ  रोती  है 
देखो,  धरती  माँ  रोती  है !

" ओ!  कहां  गए  मेरे  प्यारे 
वे  छैल-छबीले  नौजवान 
गबरू  बेटे 
चौड़ी  छाती,  बांहें  विशाल 
आकाश  चूमते  
होनहार 
चिकने  पत्तों  से  सजे  भाल 
वह  ओक, अशोक 
वह  अमलताश 
सागौन,  गुरज 
शीशम,  अर्जुन 
कमरख़,  करंज 
कुचले,  कवत्थ .....
तुम  कहां  गए 
सब  कहां  गए ? !"

भटकी,  सहमी,  डरती-डरती  
आई  है  बेटी  मलयानिल 
कहती  है  धरती  मैया  के  कानों  
में सब- कुछ  रो-रो  कर ...
"कल  आई  कपूतों  की  सेना 
कुछ  यंत्र,  कुल्हाड़े  ले-ले  कर 
निष्ठुर,  निर्दय,  निर्मम  हो  कर 
पिल  पड़ी  अचानक  पेड़ों  पर 
यह  वहां  गिरा 
वह  यहां  गिरा 
पल-भर  में  सब-कुछ  हुआ  साफ़ 
बेचारे,  बेबस,  बे-ज़ुबान 
कट  गए  सभी  वे  निरपराध ...

कौए,  कोयल,  तीतर,  बटेर 
भैंसे,  भालू,  सारंग,  शेर 
चीखे,  गरजे,  फिर  हुए  मौन 
जंगल  की  पीड़ा  सुने  कौन  ?"

मलयानिल  लौट  गई  कब  की 
दिन,  रात,  महीने,  मौसम  भी 
आए,  ठहरे,  फिर  बीत  गए 
लेकिन  अब  भी  वह  रोती  है 
देखो,  धरती  माँ  रोती  है  !

सुनता  है 
कोई  सुनता  है 
कोई  सपूत  यह  सुनता  है ? ? ?

                                          ( 1994 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

मंगलवार, 4 जून 2013

कुछ देर के लिए

उफ़ ! कितनी  तेज़ी  से  भाग  रहा  है  समय  !
जैसे  प्रलय  आ  रही  हो  !

पूंजी  प्रलय  ही  तो  है
जो  दौड़ा  रही  है  समय  को
चाबुक  ले  कर

वीभत्स  है  पूंजी  का  कारोबार
न  जाने  कब  तक
और  कहां  तक  दौड़ाएगा  समय  को
क्या  शेष  रह  पाएगी  समय  की  अस्मिता  ?

गति  चाहे  मनुष्य  की  हो
या  ग्रह-नक्षत्रों  की
अथवा  समय  की
कम  से  कम  इतनी  अमानवीय  न  हो
कि  सब-कुछ  गड्ड-मड्ड  होने  लगे
मनुष्य  मशीनों  में  बदल  जाएं
और  पशु-पक्षी  चित्रों  में  !

सुगंध  फूलों  की  बजाय
बोतलों  में  क़ैद  हो  जाए
निश्चय  ही
उचित  नहीं  है  यह
प्रकृति
और  सृष्टि  के  तमाम  उपादानों  के  लिए

क्या  यह  बेहतर  नहीं  होगा
कि  रोक  दिया  जाए
तमाम  गतिवान  चीज़ों  को
कुछ  देर  के  लिए  ही  सही ? !

                                                           ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

रविवार, 2 जून 2013

फिर सफ़र में...

अंधेरा ! अंधेरा !
अमावस  की  रात !

अपनी  राह  अंधेरे  को  सौंप  कर
थक-हार  कर  बैठा  मुसाफ़िर
खण्डित  विश्वास !

मुसाफ़िर  के  कांधे  पर
मार्मिक  स्पर्श
बर्फ़ीले  हाथ !

यंत्रणा मय  सांसों  की  टकराहट
पास,  फिर  पास ,  और  पास

फिर  उठा  तूफ़ान

मुसाफ़िर  जो  थक  गया  था
मुसाफ़िर  जो  रुक  गया  था
अब  फिर  सफ़र  में  है !

और  वह  अकेला  भी  नहीं

ख़ामोश  सफ़र  ज़ारी  है !

रौशनियों  के  जंगल  से  दूर
गुमसुम  रात  के  अंधेरे  में
दो  साये ....!
मौन  चले  जाते  हैं
हाथों  में  लिए  हाथ  !

उनके  क़दमों  तले  कुचल  कर
सूखे  पत्ते
टूटते  हैं, चिटख़ते हैं

सन्नाटा  बिंध  गया  है

और  मौन,  अवश
कहीं  भाग  जाने  की  हड़बड़ाडाहट  में
विकल  है
अमावस  की  रात  !

                                                                             ( 1976 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

प्रकाशन: 'देशबंधु' भोपाल, 1976 एवं 'अंतर्यात्रा-13', 1983 ।