बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

मुझे चाहिए जो जीवन

मुझे  चाहिए  जीवन
छल-छल  कल-कल
बहते  झरने-सा  उद्दाम
और  उन्मुक्त  !

चाहिए  अपने  आंगन  में
किलकारी
अपने  छौनों  की
मुस्कानें
जी-भर  दूध
भूख-भर  रोटी
तन-भर  कपड़ा
जीवन-भर  जीवन
बेरोकटोक  आवाजाही
दुःख-सुख  की ...

मुझे  चाहिए  धूप
और  गेहूं  के  दानों  में
अपने  लोहू  का  हिस्सा  पूरा
मुझे  चाहिए
अपने  हाथों  सींचे -
दुलराए  फूलों  और  फलों  में
अपने  हिस्से  के  कोठी-भर
गंध-स्वाद अब

मुझे  चाहिए
अपने  जल, अपनी  माटी
अपने  खेतों  पर
अपना  ही  अधिकार

मुझे  चाहिए  जो  जीवन
मैं  बीज  बो  रहा  हूँ  उसके
ललछौहें
अपने  हाड़-मांस  की
खाद  मिला  कर !

                                   ( 1 9 8 6 )

                              -सुरेश  स्वप्निल 

* संभवतः, अभी तक अप्रकाशित। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।