सोमवार, 28 अप्रैल 2014

बहकाए हुए बच्चे

कोई  25-30  बच्चे
खड़े  हैं  समुद्र-तट  पर
ज़ोर-ज़ोर  से  फूंक  मारते  हुए

बच्चे  आशा  कर  रहे  हैं
कि  उनकी  फूंकों  से
पैदा  हो  जाएगा  एक  महा-चक्रवात
और  फैल  जाएगा
पृथ्वी  के  चप्पे-चप्पे  पर  !

स्पष्टत:,  बच्चों  को  बहका  दिया  है
किसी  मूर्ख  महत्वाकांक्षी  ने  !

बहकाए  हुए  बच्चे
नहीं  जानते  बेचारे
कि  उनकी  फूंक  से
केवल  मोमबत्तियां  ही  बुझ  सकती  हैं
वे  भी,  जन्मदिन  के  केक  वाली  !

कोई  समझाता  क्यों  नहीं  बच्चों  को
कि  जिस  हवा  की  आशा 
वे  कर  रहे  हैं
उसके  लिए  बहुत  बड़े  पर्यावरणीय  परिवर्त्तन
आवश्यक  हैं
जो  उस  मूर्ख  महत्वाकांक्षी  के  लिए
कभी  संभव  नहीं
जो  उन्हें
बहका  कर  ले  आया  है
यहां  तक  !

बच्चे  अंततः
बच्चे  ही  तो  हैं
लेकिन  वे  बड़ों  से  कहीं  अधिक
बुद्धिमान  भी  हैं
वे  जिस  दिन  पहुंचेंगे
सत्य  की  तह  तक
उस  दिन
सचमुच  जन्म  लेगा  एक  महा-चक्रवात
जो  समाप्त  कर  देगा
सारे  मूर्ख  महत्वाकांक्षियों  को 
और  उनके  द्वारा
फैलाए  जा  रहे 
हवाओं  के  भ्रमों  को  !

                                                                      ( 2014 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 26 अप्रैल 2014

कुछ देर का दृष्टिबंध ...

मदारी  बहुत  ख़ुश  है 
आजकल
उसकी  हर  युक्ति  काम  कर  रही  है
उदाहरण  के  लिए, 
वह  हवा  में  हाथ  हिलाता  है
और  हाथी  प्रकट  हो  जाता  है

वह  देखते  ही  देखते 
मजमे  की  जगह  पर
कुछ  भी  साक्षात  कर  दिखाता  है
एक  बार
उसने  लाल  क़िला  ला  खड़ा  किया
दूसरी  बार  संसद  भी 
वह  तो  व्हाइट  हाउस  भी  ले  आता
मगर  अनुमति  नहीं  मिली
वॉशिंग्टन से ...

मदारी  बहुत  ख़ुश  है
अपने  सहायकों  से
वे  हर  असंभव  को  संभव 
करके  दिखा  रहे  हैं
यहां  तक  कि
विरोधियों  के  घर  में 
सेंध  मारना  भी  !

दुर्भाग्य  यह  है
कि  कुछ  भी  यथार्थ  नहीं  है
उसके  खेल  में
वह  जानता  है
कि  सम्मोहन  टूटते  ही
सारे  दर्शक
लौट  जाएंगे  अपने-अपने  घर
और  फिर  पलट  कर
देखेंगे  तक  नहीं 
मदारी  की  तरफ़  !

यह  दिहाड़ी  वाला  मामला  है,  मित्र  !
दिहाड़ी  ख़त्म  तो  दर्शकों  की 
आस्थाएं  भी  ख़त्म
चीख़ने-चिल्लाने  की  शक्ति  भी
आख़िर  मज़दूर  क्यों  बेचे 
अपना  सारा  जीवन 
ठेकेदार  के  हाथों
वह  भी 
सिर्फ़  कुछ  दिहाड़ियों  के  लिए  ?

मदारी  जानता  है
कि  यह  सिर्फ़  धोखा  है
नज़र  का
मात्र  कुछ  देर  का  दृष्टिबंध ...

कहीं  कोई  तो  है
जो  मदारी  से  करवा  रहा  है
ये  सारे  तिलिस्म
सारे  मायाजाल ...

सारे  मंत्र  चुक  जाते  हैं
सारे  भूत-प्रेत  लौट  जाते  हैं
सारे  सहायक  वापस  चले  जाते  हैं
अपनी-अपनी  पुरानी  नौकरियों  पर  !

मदारी  यदि  समय  रहते
नहीं  कर  पाया
वह  सब
जो  उस  पर  पैसा  लगाने  वाले
चाहते  हैं
उसके  माध्यम  से  करवा  लेना
तो  पता  नहीं, 
क्या  होगा  इस  ग़रीब  का  !

                                                                   ( 2014 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

बस, एक बार ...

अलादीन  का  चिराग़ 
मिल  गया  है  उसे
अब  वह 
चिराग़  को  रगड़ेगा  ज़मीन  पर
और  दैत्य  प्रकट  हो  जाएगा
'क्या हुक्म  है  मेरे  आक़ा ?'
कहता  हुआ ...

मगर  इस  बार
दैत्य  की  भी  कुछ  शर्त्तें  हैं
जो  माननी  ही  होंगी  उसे
जैसे,  रोज़  सौ-पचास  मनुष्यों  का
ताज़ा  मांस....

यदि  देश  को 
संसार  की  महाशक्ति  बनाना  है
यदि  चीन,  पाकिस्तान 
और  अमेरिका  को
अपने  पाँवों  में  गिरना  है
तो  इतना  त्याग  करना  ही  पड़ेगा

और  फ़र्क़  क्या  पड़ता  है  उसे  ?
सवा  सौ  करोड़  की जनसंख्या  में
रोज़  सौ-पचास  चढ़ा  भी  दिए
दैत्य  की  भेंट
तो  भी 
देश  की  जनसंख्या  कम  नहीं  होने  वाली
और  फिर  दैत्य  भी  तो  है !

बहरहाल, 
एक  और  शर्त्त  भी  है  देश  की
जिसे  पूरा  करने  के  लिए 
आपकी  मदद  चाहिए  उसे

आप बस,  एक  बार
प्रधानमंत्री  बनवा  दीजिए  उसे 
अखंड  भारत  राष्ट्र  का ....!

                                                                            ( 2014 )

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल  

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बुधवार, 23 अप्रैल 2014

निर्णय तो हो चुका !

यह  निश्चित  करना
काफ़ी  मुश्किल  होता  जा  रहा  है
कि  शत्रु
स्वयं  ख़तरनाक  है
या  उसके  समर्थक

कुछ  लोग
जो  स्वयं  सामने  नहीं  आते
किंतु  युद्ध  के  सारे  सूत्र
अपने  हाथ  में  रखना  चाहते  हैं
वे  जानते  हैं
कि  विजेता  अंततः  वही  होंगे
युद्ध  का  परिणाम चाहे  जो  भी  हो !

साधन-संपन्न  होने  का  एक  अर्थ  यह  भी  है 
आजकल
कि  लोकतंत्र  की  सारी  निर्णय-प्रक्रिया  को
अपने  वश  में  कर  लिया  जाए
ताकि  हमेशा  छिपे  रहें
आपके  सारे  अपराध !

अब  यदि  ऐसे  लोग
भ्रम  में  ही  जीना  चाहें
तो  क्या  कहा  जा सकता  है  भला ?

निर्णय  तो  हो  चुका
केवल  घोषणा  शेष  है
युद्ध  के  परिणाम  की

आप  यदि  सही  निर्णय  के  साथ  हैं
तो  मिठाइयां  बांट  सकते  हैं
परिणाम  की  प्रतीक्षा  किए  बिना  !

                                                               ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

तानाशाह

अकेला  होते  ही
भय  से  थर-थर 
कांपने  लगता  है
तानाशाह  !

सब  दिखावा  है
उसकी  56 इंच  की  छाती
अभेद्य  जिरह-बख़्तर
उसकी  चमकती  हुई  तलवार

उसकी  तथाकथित  वीरता  का
एकमात्र  रहस्य  है
उसकी  आज्ञाकारी  सेनाएं
उसके  आस-पास  तैनात  अंगरक्षक
आत्म-सम्मान  विहीन  नौकरशाही ...

उसे  अंधेरे  से
अपने  आस-पास  से
यहां  तक  कि 
स्वयं  अपने  अंगरक्षकों  से  भी
शाश्वत  भय  है

वह  मृत्यु  के  नाम  से  ही 
घबरा  उठता  है

विडम्बना  यह  है
कि  अपने  भय  से  पार  पाने  के  लिए
हत्याएं  करने  से 
डर  नहीं  लगता  उसे ...

तानाशाह  कभी  आईना  नहीं  देखता !

जिस  दिन  वह
स्वयं  अपनी  रक्त-रंजित  आंखों  में 
आंखें  डाल  कर  देखेगा
उसी  दम
दम  तोड़  देगा  तानाशाह !

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 21 अप्रैल 2014

कौन-सा कुरुक्षेत्र ?

यह  कौन-सा  कुरुक्षेत्र  है
जहां  दर्जनों  धृतराष्ट्र  खड़े  हैं
हर  किसी  के  सामने

असंख्य,  अक्षौहिणी  सेनाएं
आधुनिकतम  शस्त्रास्त्र  से  लैस
सारे  सेनानायक,  सारे  सैनिक
सब  के  सब
आंखों  पर  पट्टियां  बांधे
लड़ते  चले  जा  रहे  हैं
न  जाने  किसके  विरुद्ध
किसके  पक्ष  में

वे  कौन  शकुनि  हैं
जो  विवश  कर  रहे  हैं  भाई-भाई  को
एक-दूसरे  के  विरुद्ध
युद्ध  के  लिए  ?

कोई  नियम  नहीं
कोई  सिद्धान्त  नहीं
केवल  युद्ध
विश्व  के   समृद्धतम  प्राकृतिक  संसाधनों
और  मूक -तम  जनसंख्याओं  में  से  एक  पर
विजय  के  लिए ...

यह  युद्ध
दृष्टिहीनों  का  है
अथवा 
दृष्टिहीनता  का ?

                                                                              (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 20 अप्रैल 2014

जमी हुई धूल

क्या  होगा 
अबकी  बार ?
कोई  है  तैयार
यह  सुनने,  समझने 
और  मानने  को
कि  सब  प्रयास  हो जाएंगे 
बेकार
पिछली  बार  की ही  भांति

परिवर्त्तन  क्या  इस  तरह
इतनी  सरलता  से  हो  जाते  हैं ?

न  कोई  भूकंप  आया
न  ज्वालामुखी  फूटा
न  कोई  ऐसा  जन-उभार
जो  उलट-पलट  दे  सारे  ताज-तख़्त

न  हो  सकी  साफ़
समाज  के  दिल-दिमाग़  पर
शताब्दियों  की  जमी  हुई  धूल 

अगर  कुछ  बदला  भी
तो  सिर्फ़  नज़र  आने  वाले 
कुछ-एक  चेहरे

क्या  इसी  परिवर्त्तन  के  लिए
उतावले  हो  रहे थे  सब ???

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

चुनना किसे है ?!!

शब्द  कभी-कभी 
छोटे  पड़  जाते  हैं
व्यक्तित्वों  की  व्याख्या  करने  में
जैसे  हिटलर,  मुसोलिनी, तोज़ो ...

इतिहास  देखता  रह  जाता  है
हर  क्रूर,  वीभत्स  मनुष्य  को
आंखें  फाड़  कर
प्रकृति  भी
समझ  नहीं  पाती  कि  कैसे
कोई  मनुष्य
बदल  जाता  है  
हिंस्र  पशु  में

कहां  से  पाते  हैं  लोग
इतने  अमानवीय  संस्कार
जो  दूसरे  मनुष्य  को 
तब्दील  कर  देते  हैं
कीड़े-मकोड़ों  में ?

देखिए,  आपके  आसपास  भी 
मिल  जाएंगे  ऐसे  कुछ  अमनुष्य
जो  सत्ता  के  लिए 
गिर  सकते  हैं 
किसी  भी  सीमा  तक  !

ऐसे  हाथों  में  मत  सौंपिए
स्वर्ग-जैसे  सुंदर  देश  को  !

अपने  विवेक  को 
टटोलिए,  छू  कर  देखिए
और  तय  कीजिए
कि  चुनना  किसे  है  ?!!

                                                      (2014)

                                             -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 13 अप्रैल 2014

आप मुकर नहीं सकते...

इतना  अंधविश्वास 
मत  कीजिए  किसी  पर
कि  वास्तविकता  प्रकट  होने  पर
लज्जित  होना  पड़े
अपने-आप  पर  !

प्रचार  का  अर्थ  ही  है
उन  'गुणों'  का  दावा  करना
जो  व्यक्ति/वस्तु  में 
कभी  न  थे,  न  होंगे 
और  जिनको  लेकर 
कोई  मुक़दमा  भी  न  चलाया  जा  सके

सरासर  धोखे  का  व्यापार  है
प्रचार  का  विचार 

लोग  तो 
सब्ज़ी-भाजी  भी  ख़रीदते  हैं
तो  दर्ज़नों  तर्कों  के  बाद
आप  क्या  ऐसे  ही  सौंप  देंगे
देश  की  सत्ता  किसी  भी  अपात्र  को  ?
मात्र  प्रचार  से  प्रभावित  हो कर  ? ?

आप  भाग्य-विधाता  हैं  देश  के
आपकी  नैतिक  ज़िम्मेदारी  है
भावी  पीढ़ियों  के  लिए
कि  सत्ता 
सदैव  सही  हाथों  तक  पहुंचे
आप  मुकर  नहीं  सकते
इस  उत्तरदायित्व  से

सही  निर्णय  लीजिए
सही  समय  पर 
ताकि  भावी  पीढ़ियां 
गर्व  कर  सकें
आपके  विवेक  पर  ! 

                                                                  (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

ख़तरनाक प्रयोग ...

कुछ  बातें 
कुछ  चीज़ें 
कुछ  सिद्धान्त 
कभी  नहीं  बदलते
मसलन,  कुत्ते  की  पूंछ
बंदर  की  गुलाटियां
सियारों  की  हुआं-हुआं  

मसलन,  ख़ाकी  नेकर 
और  काली  टोपियों  का  चरित्र

किसी  नरभक्षी  अहंकारी  की  आदतें
तो
कभी  भी  नहीं  बदल  सकतीं
किसी  भी  मूल्य  पर  !

जब  आप  सांप  पर  विश्वास  करते  हैं
कि  वह 
नहीं  डसेगा  आपको
ठीक  उसी  समय  वह 
तोड़  देता  है  आपका  विश्वास ...

आख़िर  क्यों  करते  हैं  आप
इतने  ख़तरनाक  प्रयोग 
बार-बार  ?

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 5 अप्रैल 2014

चुनना है कुछ और भी ...

न  जाने  कितने  मुखौटे  हैं
एक-एक  मुखौटे  के  नीचे ...
क्या  कभी  सामने  आ  सकता  है
इन  मुखौटों  का  सत्य
इनका  असली  चेहरा ?

मनुष्य  इतना  ढोंगी
इतना  पाखंडी  कैसे  हो  गया
इतने  कम  समय  में  ?

अभी  बहुत  अधिक  दिन  नहीं  हुए
जब  गांधी-नेहरू
और  भगत  सिंह  जैसे  मनुष्य  भी 
जन्म  लेते  थे  इसी  देश  की  मिट्टी  में
और  लोकतंत्र  की  तथाकथित  अवधारणाओं  को
चुनौती  देते
चारु  मजूमदार  और  अवतार  सिंह  पाश  जैसे
दुर्दम्य  योद्धा  भी

हम  कहां  जा  रहे  हैं,  अंततः  ?
क्या  यह  अंत  है 
महान  भारतीय  सभ्यता  और  संस्कृति  का  ?
क्या  हम  उसी  राह  पर  तो  नहीं
जिस  पर  चल  कर 
नष्ट  हो  गई  थी  मया  संस्कृति
या  अफ़ग़ानिस्तान  या  इराक़ 
या  मिस्र  महान  की  सभ्यताएं  ???

प्रश्न  केवल  एक  लोकसभा-चुनाव  तक 
सीमित  नहीं  रह  गया  है  अब
हमें  चुनना  है  कुछ  और  भी
मसलन,  सौ  साल  बाद  के 
हमारे  वंशजों  का  भविष्य  भी  ! 

काश !  हमारा  विवेक  हमारे  साथ  ही  रहे
अपने  प्रतिनिधि  चुनते  समय ...

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

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