मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

कभी-कभी जब सूरज कई दिन तक नहीं निकलता

कभी-कभी
जब सूरज कई दिन  तक
नहीं निकलता
हम अपने-आप को
घिरा हुआ पाते हैं
हर ओर से

सूरज का इस तरह
कई-कई दिन तक
ग़ायब हो जाना 
अनायास नहीं
एक योजनाबद्ध षड्यंत्र  होता है
जिसे हम
साँस दर साँस महसूसते हैं
और अपने कमरों में
दुबके पड़े रहते हैं

हवाएं जाल बुन कर
आकाश में फैला देती हैं
और धरती
चिपचिपी उमस से घिनियाने लगती है
बूँदें
अपने बड़े होते आकार के साथ
आतंक के नगाड़े पीटती हैं
और शहर
पेड़ से टपकी हुई जामुन की तरह
सारे संसार से कट जाता है

हवाओं में ठंडापन
और तेज़ी आते-आते
धमनियों में बहता रक्त
जमने लगता है
और अपनी अकड़न का अहसास होने तक
हम निस्पंद हो जाते हैं

दरअसल हमने तय कर लिया है
कि तेज़ हवाओं का चलना
और धीरे-धीरे
सारे आसमान का स्याह हो जाना
महज़ प्राकृतिक संयोग हैं
जिनमें हमारी-अपनी दिनचर्या की
कोई भूमिका नहीं

काश!  हम अपने कवच तोड़ कर
बाहर आ पाते!

हमें अब भी सीख लेना चाहिए
कि ऊष्मा से प्रकाश
प्रकाश से शक्ति
शक्ति से पदार्थ
और पुनः पदार्थ से शक्ति, प्रकाश और ऊष्मा तक
ऊर्जा का रूपांतरण
कैसे हो जाता है ?

धूप हर दाने को पकाती है
और दाना आदमी को

जो लोग
खेतों,  कारख़ानों , खदानों में
हाड़ तोड़ते हैं
और दूसरों को पीठ पर लाद कर
घोड़े बन कर दौड़ते हैं
वे सूर्य के लघु रूप होते हैं
वे अपने  से , पांवों से , पीठ से
यानी शरीर के हर उघड़े हिस्से से
धूप सोखते हैं

उनकी विस्फोटक-शक्ति
हाइड्रोजन के परमाणुओं से
कम नहीं होती

अबकी बार
हवाओं के रुख़ बदलते ही
हमें अपने ज़ंग खाए हुए औज़ार
माँज कर चमकाना चाहिए
और अपने बच्चों को
पानी से हाइड्रोजन-परमाणु प्राप्त करने
और उसे विखंडित करने का तरीक़ा
सिखाना चाहिए।

                                                    ( 1984 )

                                             -सुरेश स्वप्निल

*प्रकाशन: 'दैनिक भास्कर' भोपाल ( साप्ताहिक राष्ट्रीय संस्करण ), 1984
                  तथा अनेक साहित्यिक लघु पत्रिकाओं में समय-समय पर।