शुक्रवार, 22 मार्च 2013

मेज़ नंबर नौ

मेज़  नंबर  नौ
रिज़र्व  है  बरसों  से  उनके  लिए
जो  रोज़  सात  बजे  आते  हैं
और  कॉफ़ी  के  दो-तीन  प्याले  पी  कर
रात  को  दस  बजे  जाते  हैं !

कॉफ़ी  हाउस  के  वेटर  जानते  हैं  उन  सब  को
कि  सिर्फ़  उनके  इरादे  ख़तरनाक  हैं,
वे  ख़ुद  नहीं !

वे  आते  हैं
कंधों  पर  झोले  लटकाए
अपनी  बेतरतीब  दाढ़ी  में  उंगलियां  फंसाते
और  अपने  मैले  कुरतों  की
जेबें  टटोलते
अपनी  पीली-पीली  आंखों  में
तैरते  सवाल  लिए
मेज़  नंबर  नौ  पर  जम  जाते  हैं
अक्सर  सबसे  सस्ती  बीड़ियां  सुलगा  कर
बहस  में  जुट  जाते  हैं
पता  नहीं  कब  ग़ुस्सा  उनके  सर  पर  सवार  हो  जाता  है
और  उनकी  आंखें  लाल  होती  चली  जाती  हैं !

वे  बहस  करते  हैं
कभी  खेत, कभी  खलिहान
कभी  पत्थरों  की  खान
कभी  कपड़ा-मिलों
और  कभी  बीड़ी-मज़दूरों , उनकी  बीवी-बेटियों
और  शोषण  के  बारे  में
और  हर  बार
उन्हें  कविताओं  में  खींच  लाते  हैं !

वे  हड़ताल, प्रदर्शन  और  विद्रोह  की  बातें  करते
खांसते  हैं, खंखारते  हैं
मुट्ठियां  बांधते-खोलते  हैं
और  मेज़  नंबर  नौ
थरथराने  लगती  है !

फिर  वे  कविताएं  सुनाते  हैं
जिनमें  पेड़  होते  हैं, नदियां  होती  हैं, चिड़ियें  भी  होती  हैं
और  आतंक  होता  है
और  अवश्यंभावी  क्रांति  होती  है

कॉफ़ी  हाउस  के  वेटर  नहीं  जानते
कि  दुनिया  की  किस  भाषा  में
मज़दूर  का  अर्थ  पेड़, नदी  और  चिड़िया  होता  है।
 दरअसल  उन्हें  कविता  की  समझ  नहीं  है
वे  बहुत  जल्दी  ऊब  जाते  हैं
और  मेज़  नंबर  नौ  से  बेहद  कतराते  हैं
उन्हें  यह  भी  नहीं  मालूम
कि  मेज़  नंबर  नौ  के  ख़ुफ़िया  तहख़ाने  में
एक  अदद  दिल  है
और  दिमाग़  भी !
उसे  कविताओं  की  ख़ासी  समझ  है
और  वह  भी
मज़दूरों  के  विश्वव्यापी  शोषण  के  ख़िलाफ़  है।

जब  वे  सब
व्यवस्था  के  निकम्मेपन  पर
ग़ुस्से  से  कांपते  हैं
और  अपनी  मुट्ठियां  मेज़  पर  दे  मारते  हैं
तो  मेज़  नंबर  नौ
उनके  समर्थन  में  चरमराती  है !
हालांकि, कवि-गण  उसकी  भावनाओं  को  नहीं  समझ  पाते !
वे  तो  बस, पौने  दस  बजते  ही  अपनी  बहस  ख़त्म  करते  हैं
और  कॉफ़ी  की  आख़िरी  प्याली  पी  कर
हड़बड़ी  में  बाहर  निकलते  हैं
क्योंकि  शहर  के  किसी  भी  हिस्से  को
जाने  वाली  आख़िरी  बसें
सवा  दस  तक  चली  जाती  हैं।

मेज़  नंबर  नौ  के  पास
सिर्फ़  ज़ुबान  और  होती
तो  वह  ज़रूर  पूछती  उनसे
कि  कॉफ़ी  हाउस  के  वेटरों  का  ज़िक्र
कब  आएगा  कविताओं  में ? !

                                                                                     ( 1986 )

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

* संभवतः, अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

1 टिप्पणी:

Sp Sudhesh ने कहा…

कविता में िजस व्यक्ति का नक़्शा पेश किया गया है ,ऐसे छद्म क़ान्तिकारी
अनेक शहरों क़स्बों में मिल जाते हैं , जिन की क़ान्ति केवल काफ़ी हाउस
तय सीमित रहती है । बन्धु , बधाई ।