शनिवार, 16 नवंबर 2013

मरना ही चाहो !

बहुत  शौक़  है  न  तुम्हें
सच  बोलने
जानने  और  समझने  का
तो  तय  कर  लो
कि  कब  और  कैसे  मारे  जाना
पसंद  करोगे....

जीने  कौन  देगा  तुम्हें
न  सरकार,  न  पूंजीपति
न  ग़ुंडे-बदमाश

अदालत  भी  क्या  करेगी
दो  सिपाही  तैनात  करवा  देगी
सुरक्षा  के  नाम  पर
जो  मौक़ा  मिलते  ही  बिक  जाएंगे
तुम्हारे  दुश्मनों  के  हाथों !

पढ़े-लिखे  हो
बेहतर  है  नौकरी  कर  लो
किसी  पूंजीपति  के  यहां
कहो  तो  चपरासी  बनवा  दें
नगर-पालिका  में

कहां  पड़े  हो
सच-झूठ  के  चक्कर  में
भविष्य  देखो  अपना
और  अपनी  संतानों  का  !

अब  अगर  मरना  ही  चाहो
तो  तुम्हारी  मर्ज़ी !

                                        ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आज सच बोलना और मरना पूरक हो गए हैं ... प्रभावी रचना ...