गुरुवार, 19 जून 2014

चुप रहना ...!

बेशक़
बहुत  कुछ  पाया  जा  सकता  है
चुप  रह  कर
मसलन,  सरकारी नौकरी,
गाड़ी,  बंगला,
यश,  प्रतिष्ठा,  सम्मान
और  पुरस्कार...

बेशक़,  बचा  जा  सकता  है
चुप  रह  कर 
तमाम  मुसीबतों  से
जैसे,  पुलिस
सीबीआई,  इनकम  टैक्स,
फ़र्ज़ी  मुठभेड़ ....

बेशक़,  आत्म-हत्या  का 
एक  बेहतर  तरीक़ा  है
सब-कुछ  देखते-सुनते  हुए  भी 
चुप  रहना !

                                                      (2014)

                                                -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 17 मई 2014

...कोई और सारथि !

शत्रु  की  पताका
फहरा  रही  है
हस्तिनापुर  पर  !

हे  पार्थ !
कौन  था  तुम्हारा  सारथि
किसने  की  थीं 
व्यूह-रचनाएं
कहां  खो  गया 
तुम्हारे  योद्धाओं  का  साहस
उनका  आत्म-बल ?

न,  पार्थ  !
पराजय  के  दंश  से  बड़ा
कोई  घाव  नहीं  होता
कोई  अपमान  बड़ा  नहीं  होता
पराजय  के  अपमान  से

इतनी  ग्लानि,  इतनी  पीड़ा
सह  सकोगे  तुम  ?

प्रतिशोध  की  ज्वाला 
बुझ  तो  नहीं  गई
तुम्हारे  ह्रदय  में  ?

सीखना  ही  होगा  तुम्हें
पराजय  को  विजय  में  बदलना
करनी  ही  होंगी  पूरी
अपेक्षाएं
दीन-हीन  नागरिकों  की 
फहरानी  ही  होगी  फिर  से
अपनी  पताका
हस्तिनापुर  पर ...

अबकी  बार 
चुन  लेना  कोई  और  सारथि  !

                                                             ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 10 मई 2014

अगला महाभारत ...!

युद्ध  का  अंतिम  प्रहर
आ  ही  गया,  महावीरों  !

देखना,  कोई  प्रयत्न
शेष  न  रह  जाए
सूर्यास्त  के  पूर्व  ही
जीतना  होगा  युद्ध
झुका  देनी  होंगी
शत्रुओं  की  ध्वजाएं ...

शत्रु  पक्ष  का
एक  भी  योद्धा  शेष  न  रह  पाए
जीवित  अथवा  घायल

मृत्यु  के  मुख  से  लौटा
हर  शत्रु
सौ  शत्रुओं  के  बराबर  होता  है
क्रूर  और  भयावह...

स्थायी  विजय  तभी  संभव  है
जब  मिटा  दी  जाए
शत्रुओं  की  युद्ध  करने  की
सारी  आशाएं/आकांक्षाएं  
और  ख़त्म  कर  दिए  जाएं
सारे  दुस्साहस

युद्ध  के
इस  अंतिम  प्रहर  को 
अकारथ  न  होने  देना
ताकि  अगले  महाभारत  की
भूमिका  स्पष्ट  हो  सके ...!

                                                        ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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बुधवार, 7 मई 2014

नीच सोच, नीच कर्म !

मेरा  जन्म-नाम  'न'  वर्ण  से
आरंभ  होता  है
यानी,  वृश्चिक  राशि
अर्थात,  चंद्रमा  की  नीचतम  राशि  !

चंद्रमा  मन  का  स्वामी  होता  है
वृश्चिक  राशि  में  जन्म  लेने  वाले
जातक  का  मन
नीच  भावनाओं,  नीच  विचारों  से  भरा  होता  है
उसके  सभी  कर्म  नीच  होते  हैं
नीच  सोच  से  प्रेरित  !

मंगल  इस  राशि  का  स्वामी
होता  है
व्यक्ति  की  उग्रतम  भावनाओं  का  कारक
यही  कारण  है
मेरी  झगड़ालू  प्रवृत्ति  का  ! 

मेरा  अपने  जन्म-समय  पर
अधिकार  होता
तो मैं  किसी  और  समय  पर
जन्म  लेता  !

मेरी  राशि  का  नैसर्गिक  गुण  है
अवसर  पाते  ही
डंक  मार  देना
मेरा  कोई  मित्र  नहीं  होता
क्योंकि  मैं
सबका  शत्रु  होना  ही
श्रेष्ठ  मानता  हूं  !

बिच्छू  हूं  न  !
सब  मेरे  शत्रु,
मैं  सबका  शत्रु  !
किसी  दिन
कोई  अनजान,  शैतान  बच्चा
मसल  कर  देगा  मुझे
अपने  जूते  से  !

नीच  राशि,  नीच  मन
नीच  सोच,  नीच  कर्म  !

अंत  भला  उच्च  कैसे  होगा  ?

                                                                       ( 2014 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

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सोमवार, 5 मई 2014

धर्म का अर्थ ???

वह  निकलता  था
एक  हाथ  में  धर्म-ग्रंथ 
और  दूसरे  हाथ  में  तलवार  लेकर
इस  चेतावनी  के  साथ
कि  या  तो  मेरा  धर्म  स्वीकार  करो
या  मेरी  तलवार  !

उसके  वंशज
कई  शताब्दियों  के  बाद
अचानक  आ  प्रकट  हुए  हैं
देश  में
वे  हाथ  में  तलवार  नहीं  रखते
कोई  चेतावनी  भी  नहीं  देते 
किसी  विधर्मी  को
वे  केवल  संकेत करते  हैं
अपनी  अघोषित,  कुपोषित  सेना  को
और  वे  भूखे-नंगे
टूट  पड़ते  हैं
अपने  ही  जैसे  भूखे-नंगों  की  बस्तियों  पर
तरह-तरह  के  हथियार  लेकर  !

वे  इतिहास  के  उस  कुख्यात  महानायक  के
वर्त्तमान  वंशज
किस  देश,  किस  राष्ट्र,  किस  धर्म  के  हैं  ?
क्या  उनकी  शिराओं  में  भी
वही  रक्त  है
जो  बहता  है  मेरी
और  आपकी  शिराओं  में  ?

क्या  यही  होता  है
धर्म  का  अर्थ  ???


                                                                                 ( 2014 )
     
                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 4 मई 2014

क्या करेंगे आप ?

उसके  एक  आव्हान  पर
दौड़  पड़े 
सारे  के  सारे  हत्यारे
निर्दोष,  निरपराध  मनुष्यों  को
काट-मारने  के  लिए

कौन  है  वह  आदमख़ोर  ?

जानते  सभी  हैं 
आप  और  मैं  भी
मगर  नाम  नहीं  लेगा  कोई
मेरे  सिवा !

मैं  जानता  हूं 
कि  जब  मार  डाला  जाऊंगा  मैं  भी
उसके  भाड़े  के  हत्यारों  के  हाथों
तब 
मेरी  मृत्यु  पर  आंसू  बहाने  वालों  में
आप  भी  होंगे
संभवतः,  सबसे  आगे  !

आप  शायद  मुझे  मार  डालने  वालों  को
जानते  होंगे
मगर  नाम  नहीं  बताएंगे
डर  के  मारे  !

मगर  मैं  इतना  कायर  नहीं  हूं

जब  हत्यारे  आपको  ढूंढते  हुए  आएंगे
आपसे  पहले  मैं  ही  मारा  जाऊंगा
हत्यारों  का  प्रतिरोध  करते  हुए

मेरे  मारे  जाने  के  बाद
क्या  करेंगे  आप  ???

                                                                ( 2014 )

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 1 मई 2014

मई दिवस पर : बोल मजूरा, हल्ला बोल

बोल  मजूरा,  हल्ला  बोल
बोल  जवाना,  हल्ला  बोल
बोल  किसाना,  हल्ला  बोल

हल्ला  बोल  कि  हिल  जाए  धरती,  डोले  आकाश

सदियों  से  तेरी  मेहनत  का
फल  औरों  ने  खाया  है
नहीं-नहीं,  अब  सोना  कैसा
सूरज  सिर  पर  आया  है

हुआ  सबेरा,  आंखें  खोल 
बाज़ू  की  ताक़त  को  तौल
ले  अपनी  मेहनत  का  मोल 
तू  सब  कुछ  है,  अपने  मन  में  पैदा  कर  विश्वास

जाग  कि  दुनिया  को  बतला  दे
क्या  है  तेरी  क़ीमत
अपने  मेहनतकश  हाथों  से
लिख  दे  जग  की  क़िस्मत

तुझसे  आंख  मिलाए  कौन
आंधी  से  टकराए  कौन
अपनी  मौत  बुलाए  कौन
कब  तक  तुझसे  हार  न  मानेंगे  क़ातिल  एहसास

बोल  मजूरा,  हल्ला  बोल 
बोल  जवाना,  हल्ला  बोल
बोल  किसाना,  हल्ला  बोल

हल्ला  बोल  कि  हिल  जाए  धरती,  डोले  आकाश

हल्ला  बोल
हल्ला  बोल
हल्ला  बोल  !!! 


सोमवार, 28 अप्रैल 2014

बहकाए हुए बच्चे

कोई  25-30  बच्चे
खड़े  हैं  समुद्र-तट  पर
ज़ोर-ज़ोर  से  फूंक  मारते  हुए

बच्चे  आशा  कर  रहे  हैं
कि  उनकी  फूंकों  से
पैदा  हो  जाएगा  एक  महा-चक्रवात
और  फैल  जाएगा
पृथ्वी  के  चप्पे-चप्पे  पर  !

स्पष्टत:,  बच्चों  को  बहका  दिया  है
किसी  मूर्ख  महत्वाकांक्षी  ने  !

बहकाए  हुए  बच्चे
नहीं  जानते  बेचारे
कि  उनकी  फूंक  से
केवल  मोमबत्तियां  ही  बुझ  सकती  हैं
वे  भी,  जन्मदिन  के  केक  वाली  !

कोई  समझाता  क्यों  नहीं  बच्चों  को
कि  जिस  हवा  की  आशा 
वे  कर  रहे  हैं
उसके  लिए  बहुत  बड़े  पर्यावरणीय  परिवर्त्तन
आवश्यक  हैं
जो  उस  मूर्ख  महत्वाकांक्षी  के  लिए
कभी  संभव  नहीं
जो  उन्हें
बहका  कर  ले  आया  है
यहां  तक  !

बच्चे  अंततः
बच्चे  ही  तो  हैं
लेकिन  वे  बड़ों  से  कहीं  अधिक
बुद्धिमान  भी  हैं
वे  जिस  दिन  पहुंचेंगे
सत्य  की  तह  तक
उस  दिन
सचमुच  जन्म  लेगा  एक  महा-चक्रवात
जो  समाप्त  कर  देगा
सारे  मूर्ख  महत्वाकांक्षियों  को 
और  उनके  द्वारा
फैलाए  जा  रहे 
हवाओं  के  भ्रमों  को  !

                                                                      ( 2014 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 26 अप्रैल 2014

कुछ देर का दृष्टिबंध ...

मदारी  बहुत  ख़ुश  है 
आजकल
उसकी  हर  युक्ति  काम  कर  रही  है
उदाहरण  के  लिए, 
वह  हवा  में  हाथ  हिलाता  है
और  हाथी  प्रकट  हो  जाता  है

वह  देखते  ही  देखते 
मजमे  की  जगह  पर
कुछ  भी  साक्षात  कर  दिखाता  है
एक  बार
उसने  लाल  क़िला  ला  खड़ा  किया
दूसरी  बार  संसद  भी 
वह  तो  व्हाइट  हाउस  भी  ले  आता
मगर  अनुमति  नहीं  मिली
वॉशिंग्टन से ...

मदारी  बहुत  ख़ुश  है
अपने  सहायकों  से
वे  हर  असंभव  को  संभव 
करके  दिखा  रहे  हैं
यहां  तक  कि
विरोधियों  के  घर  में 
सेंध  मारना  भी  !

दुर्भाग्य  यह  है
कि  कुछ  भी  यथार्थ  नहीं  है
उसके  खेल  में
वह  जानता  है
कि  सम्मोहन  टूटते  ही
सारे  दर्शक
लौट  जाएंगे  अपने-अपने  घर
और  फिर  पलट  कर
देखेंगे  तक  नहीं 
मदारी  की  तरफ़  !

यह  दिहाड़ी  वाला  मामला  है,  मित्र  !
दिहाड़ी  ख़त्म  तो  दर्शकों  की 
आस्थाएं  भी  ख़त्म
चीख़ने-चिल्लाने  की  शक्ति  भी
आख़िर  मज़दूर  क्यों  बेचे 
अपना  सारा  जीवन 
ठेकेदार  के  हाथों
वह  भी 
सिर्फ़  कुछ  दिहाड़ियों  के  लिए  ?

मदारी  जानता  है
कि  यह  सिर्फ़  धोखा  है
नज़र  का
मात्र  कुछ  देर  का  दृष्टिबंध ...

कहीं  कोई  तो  है
जो  मदारी  से  करवा  रहा  है
ये  सारे  तिलिस्म
सारे  मायाजाल ...

सारे  मंत्र  चुक  जाते  हैं
सारे  भूत-प्रेत  लौट  जाते  हैं
सारे  सहायक  वापस  चले  जाते  हैं
अपनी-अपनी  पुरानी  नौकरियों  पर  !

मदारी  यदि  समय  रहते
नहीं  कर  पाया
वह  सब
जो  उस  पर  पैसा  लगाने  वाले
चाहते  हैं
उसके  माध्यम  से  करवा  लेना
तो  पता  नहीं, 
क्या  होगा  इस  ग़रीब  का  !

                                                                   ( 2014 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

बस, एक बार ...

अलादीन  का  चिराग़ 
मिल  गया  है  उसे
अब  वह 
चिराग़  को  रगड़ेगा  ज़मीन  पर
और  दैत्य  प्रकट  हो  जाएगा
'क्या हुक्म  है  मेरे  आक़ा ?'
कहता  हुआ ...

मगर  इस  बार
दैत्य  की  भी  कुछ  शर्त्तें  हैं
जो  माननी  ही  होंगी  उसे
जैसे,  रोज़  सौ-पचास  मनुष्यों  का
ताज़ा  मांस....

यदि  देश  को 
संसार  की  महाशक्ति  बनाना  है
यदि  चीन,  पाकिस्तान 
और  अमेरिका  को
अपने  पाँवों  में  गिरना  है
तो  इतना  त्याग  करना  ही  पड़ेगा

और  फ़र्क़  क्या  पड़ता  है  उसे  ?
सवा  सौ  करोड़  की जनसंख्या  में
रोज़  सौ-पचास  चढ़ा  भी  दिए
दैत्य  की  भेंट
तो  भी 
देश  की  जनसंख्या  कम  नहीं  होने  वाली
और  फिर  दैत्य  भी  तो  है !

बहरहाल, 
एक  और  शर्त्त  भी  है  देश  की
जिसे  पूरा  करने  के  लिए 
आपकी  मदद  चाहिए  उसे

आप बस,  एक  बार
प्रधानमंत्री  बनवा  दीजिए  उसे 
अखंड  भारत  राष्ट्र  का ....!

                                                                            ( 2014 )

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल  

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बुधवार, 23 अप्रैल 2014

निर्णय तो हो चुका !

यह  निश्चित  करना
काफ़ी  मुश्किल  होता  जा  रहा  है
कि  शत्रु
स्वयं  ख़तरनाक  है
या  उसके  समर्थक

कुछ  लोग
जो  स्वयं  सामने  नहीं  आते
किंतु  युद्ध  के  सारे  सूत्र
अपने  हाथ  में  रखना  चाहते  हैं
वे  जानते  हैं
कि  विजेता  अंततः  वही  होंगे
युद्ध  का  परिणाम चाहे  जो  भी  हो !

साधन-संपन्न  होने  का  एक  अर्थ  यह  भी  है 
आजकल
कि  लोकतंत्र  की  सारी  निर्णय-प्रक्रिया  को
अपने  वश  में  कर  लिया  जाए
ताकि  हमेशा  छिपे  रहें
आपके  सारे  अपराध !

अब  यदि  ऐसे  लोग
भ्रम  में  ही  जीना  चाहें
तो  क्या  कहा  जा सकता  है  भला ?

निर्णय  तो  हो  चुका
केवल  घोषणा  शेष  है
युद्ध  के  परिणाम  की

आप  यदि  सही  निर्णय  के  साथ  हैं
तो  मिठाइयां  बांट  सकते  हैं
परिणाम  की  प्रतीक्षा  किए  बिना  !

                                                               ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

तानाशाह

अकेला  होते  ही
भय  से  थर-थर 
कांपने  लगता  है
तानाशाह  !

सब  दिखावा  है
उसकी  56 इंच  की  छाती
अभेद्य  जिरह-बख़्तर
उसकी  चमकती  हुई  तलवार

उसकी  तथाकथित  वीरता  का
एकमात्र  रहस्य  है
उसकी  आज्ञाकारी  सेनाएं
उसके  आस-पास  तैनात  अंगरक्षक
आत्म-सम्मान  विहीन  नौकरशाही ...

उसे  अंधेरे  से
अपने  आस-पास  से
यहां  तक  कि 
स्वयं  अपने  अंगरक्षकों  से  भी
शाश्वत  भय  है

वह  मृत्यु  के  नाम  से  ही 
घबरा  उठता  है

विडम्बना  यह  है
कि  अपने  भय  से  पार  पाने  के  लिए
हत्याएं  करने  से 
डर  नहीं  लगता  उसे ...

तानाशाह  कभी  आईना  नहीं  देखता !

जिस  दिन  वह
स्वयं  अपनी  रक्त-रंजित  आंखों  में 
आंखें  डाल  कर  देखेगा
उसी  दम
दम  तोड़  देगा  तानाशाह !

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 21 अप्रैल 2014

कौन-सा कुरुक्षेत्र ?

यह  कौन-सा  कुरुक्षेत्र  है
जहां  दर्जनों  धृतराष्ट्र  खड़े  हैं
हर  किसी  के  सामने

असंख्य,  अक्षौहिणी  सेनाएं
आधुनिकतम  शस्त्रास्त्र  से  लैस
सारे  सेनानायक,  सारे  सैनिक
सब  के  सब
आंखों  पर  पट्टियां  बांधे
लड़ते  चले  जा  रहे  हैं
न  जाने  किसके  विरुद्ध
किसके  पक्ष  में

वे  कौन  शकुनि  हैं
जो  विवश  कर  रहे  हैं  भाई-भाई  को
एक-दूसरे  के  विरुद्ध
युद्ध  के  लिए  ?

कोई  नियम  नहीं
कोई  सिद्धान्त  नहीं
केवल  युद्ध
विश्व  के   समृद्धतम  प्राकृतिक  संसाधनों
और  मूक -तम  जनसंख्याओं  में  से  एक  पर
विजय  के  लिए ...

यह  युद्ध
दृष्टिहीनों  का  है
अथवा 
दृष्टिहीनता  का ?

                                                                              (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 20 अप्रैल 2014

जमी हुई धूल

क्या  होगा 
अबकी  बार ?
कोई  है  तैयार
यह  सुनने,  समझने 
और  मानने  को
कि  सब  प्रयास  हो जाएंगे 
बेकार
पिछली  बार  की ही  भांति

परिवर्त्तन  क्या  इस  तरह
इतनी  सरलता  से  हो  जाते  हैं ?

न  कोई  भूकंप  आया
न  ज्वालामुखी  फूटा
न  कोई  ऐसा  जन-उभार
जो  उलट-पलट  दे  सारे  ताज-तख़्त

न  हो  सकी  साफ़
समाज  के  दिल-दिमाग़  पर
शताब्दियों  की  जमी  हुई  धूल 

अगर  कुछ  बदला  भी
तो  सिर्फ़  नज़र  आने  वाले 
कुछ-एक  चेहरे

क्या  इसी  परिवर्त्तन  के  लिए
उतावले  हो  रहे थे  सब ???

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

...

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

चुनना किसे है ?!!

शब्द  कभी-कभी 
छोटे  पड़  जाते  हैं
व्यक्तित्वों  की  व्याख्या  करने  में
जैसे  हिटलर,  मुसोलिनी, तोज़ो ...

इतिहास  देखता  रह  जाता  है
हर  क्रूर,  वीभत्स  मनुष्य  को
आंखें  फाड़  कर
प्रकृति  भी
समझ  नहीं  पाती  कि  कैसे
कोई  मनुष्य
बदल  जाता  है  
हिंस्र  पशु  में

कहां  से  पाते  हैं  लोग
इतने  अमानवीय  संस्कार
जो  दूसरे  मनुष्य  को 
तब्दील  कर  देते  हैं
कीड़े-मकोड़ों  में ?

देखिए,  आपके  आसपास  भी 
मिल  जाएंगे  ऐसे  कुछ  अमनुष्य
जो  सत्ता  के  लिए 
गिर  सकते  हैं 
किसी  भी  सीमा  तक  !

ऐसे  हाथों  में  मत  सौंपिए
स्वर्ग-जैसे  सुंदर  देश  को  !

अपने  विवेक  को 
टटोलिए,  छू  कर  देखिए
और  तय  कीजिए
कि  चुनना  किसे  है  ?!!

                                                      (2014)

                                             -सुरेश  स्वप्निल

....

रविवार, 13 अप्रैल 2014

आप मुकर नहीं सकते...

इतना  अंधविश्वास 
मत  कीजिए  किसी  पर
कि  वास्तविकता  प्रकट  होने  पर
लज्जित  होना  पड़े
अपने-आप  पर  !

प्रचार  का  अर्थ  ही  है
उन  'गुणों'  का  दावा  करना
जो  व्यक्ति/वस्तु  में 
कभी  न  थे,  न  होंगे 
और  जिनको  लेकर 
कोई  मुक़दमा  भी  न  चलाया  जा  सके

सरासर  धोखे  का  व्यापार  है
प्रचार  का  विचार 

लोग  तो 
सब्ज़ी-भाजी  भी  ख़रीदते  हैं
तो  दर्ज़नों  तर्कों  के  बाद
आप  क्या  ऐसे  ही  सौंप  देंगे
देश  की  सत्ता  किसी  भी  अपात्र  को  ?
मात्र  प्रचार  से  प्रभावित  हो कर  ? ?

आप  भाग्य-विधाता  हैं  देश  के
आपकी  नैतिक  ज़िम्मेदारी  है
भावी  पीढ़ियों  के  लिए
कि  सत्ता 
सदैव  सही  हाथों  तक  पहुंचे
आप  मुकर  नहीं  सकते
इस  उत्तरदायित्व  से

सही  निर्णय  लीजिए
सही  समय  पर 
ताकि  भावी  पीढ़ियां 
गर्व  कर  सकें
आपके  विवेक  पर  ! 

                                                                  (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

....



मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

ख़तरनाक प्रयोग ...

कुछ  बातें 
कुछ  चीज़ें 
कुछ  सिद्धान्त 
कभी  नहीं  बदलते
मसलन,  कुत्ते  की  पूंछ
बंदर  की  गुलाटियां
सियारों  की  हुआं-हुआं  

मसलन,  ख़ाकी  नेकर 
और  काली  टोपियों  का  चरित्र

किसी  नरभक्षी  अहंकारी  की  आदतें
तो
कभी  भी  नहीं  बदल  सकतीं
किसी  भी  मूल्य  पर  !

जब  आप  सांप  पर  विश्वास  करते  हैं
कि  वह 
नहीं  डसेगा  आपको
ठीक  उसी  समय  वह 
तोड़  देता  है  आपका  विश्वास ...

आख़िर  क्यों  करते  हैं  आप
इतने  ख़तरनाक  प्रयोग 
बार-बार  ?

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

....

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

चुनना है कुछ और भी ...

न  जाने  कितने  मुखौटे  हैं
एक-एक  मुखौटे  के  नीचे ...
क्या  कभी  सामने  आ  सकता  है
इन  मुखौटों  का  सत्य
इनका  असली  चेहरा ?

मनुष्य  इतना  ढोंगी
इतना  पाखंडी  कैसे  हो  गया
इतने  कम  समय  में  ?

अभी  बहुत  अधिक  दिन  नहीं  हुए
जब  गांधी-नेहरू
और  भगत  सिंह  जैसे  मनुष्य  भी 
जन्म  लेते  थे  इसी  देश  की  मिट्टी  में
और  लोकतंत्र  की  तथाकथित  अवधारणाओं  को
चुनौती  देते
चारु  मजूमदार  और  अवतार  सिंह  पाश  जैसे
दुर्दम्य  योद्धा  भी

हम  कहां  जा  रहे  हैं,  अंततः  ?
क्या  यह  अंत  है 
महान  भारतीय  सभ्यता  और  संस्कृति  का  ?
क्या  हम  उसी  राह  पर  तो  नहीं
जिस  पर  चल  कर 
नष्ट  हो  गई  थी  मया  संस्कृति
या  अफ़ग़ानिस्तान  या  इराक़ 
या  मिस्र  महान  की  सभ्यताएं  ???

प्रश्न  केवल  एक  लोकसभा-चुनाव  तक 
सीमित  नहीं  रह  गया  है  अब
हमें  चुनना  है  कुछ  और  भी
मसलन,  सौ  साल  बाद  के 
हमारे  वंशजों  का  भविष्य  भी  ! 

काश !  हमारा  विवेक  हमारे  साथ  ही  रहे
अपने  प्रतिनिधि  चुनते  समय ...

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

....

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

आम आदमी के लिए ...!

कुछ  दिन  रह  आए  वे  भी
सत्ता  के  अंत: गृह  में
जो  हमेशा  भगा  दिए  जाते  थे  पहले
उस  गली  में  घुसने  से  पहले  !

दलित, वंचित  और  समाज  से  बहिष्कृत
सभी  को 
मिल  ही  गया  एक  अवसर
एक  नई  कर्म-संस्कृति  को 
जन्म  देने  का  !

कभी-कभी
लोकतंत्र  सचमुच  लगने  लगता  है
बड़े  काम  का  !
कभी-कभी
तंत्र  का  एक  न  एक  अंग
अचानक  जाग  उठता  है
अपने  कर्त्तव्यों  को  लेकर  !

लेकिन  जो  कुछ  भी  सार्थक 
नज़र  आता  है
वह  चार  दिन  का  तमाशा  ही  हो  कर
क्यों  रह  जाता  है ?

आख़िर  क्यों  नहीं  होता  ऐसा
लोकतंत्र  में
कि  संविधान  में  शामिल 
सारी  अच्छी  बातें 
सामान्य  लगने  लगें 
रोज़मर्रा  के  कामों  की तरह  ?

मिथक  तोड़  दिए  गए  हैं
और  द्वार  खोल  दिए  गए  हैं
सारी  लोकतांत्रिक  संभावनाओं  के
आम  आदमी  के  लिए
आम  आदमी  द्वारा  ! 

                                                       ( 2014 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

मौसम की अनुशासनहीनता ...

सूर्य  ठगा-सा  रह  जाता  है
हर  बार
जब  मौसम  इन्कार  कर  देता  है
बदलने  से  !

आख़िर  हंसी-मज़ाक़   है  क्या
बार-बार  गर्म  कपड़े  तह  कर  रखना
और  फिर निकालना ...

जो  भी  हो,
यह  लगभग  तय  होता  जा  रहा  है
कि  मौसम
अनुशासन-विहीन  हो  गया  है  आजकल
अब  तो  वह
भू-गतिकी  के  नियम  भी  नहीं  मानता  !

सच  कहा  जाए
तो  अशुभ-संकेत  हैं  ये  लक्षण
पृथ्वी  के  स्वास्थ्य  के  लिए 
नितांत  घातक  !

सूर्य  की  सत्ता  का  निर्बल  होना
हमारे  पक्ष  में  नहीं  है
मगर  मौसम  की  अनुशासनहीनता  का  कारण
कौन  है  और
हमारे  सिवा ???

                                                                              ( 2014 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

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