सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

ज़रूरत से ज़्यादा कमाने वाले

ज़रूरत  से  ज़्यादा  कमाते  हैं
कुछ  लोग
अपनी  वास्तविक  ज़रूरतों  से
बहुत  ज़्यादा
अपने  घर-परिवार  और  क़ुनबे  की
ज़रूरतों
स्वयं  अपनी  आशाओं
माता-पिता  के  स्वप्नों  
और  अपनी  तनख़्वाह  से  भी
कई  गुना  ज़्यादा  !

वे  जितना  कमाते  हैं
उससे  ज़्यादा  ख़र्च  करते  हैं
ऋण  ले-ले  कर
फिर  चुकाने  के  लिए 
और  ज़्यादा  कमाते  हैं 

कभी  रिश्वत  से 
कभी  कमीशन  से

उनके  दफ़्तर  में  पोस्टर  लगा  होता  है
'रिश्वत  लेना  और  देना
दोनों  अपराध  हैं !'

वे  नहीं  मानते  क़ानूनों  को
वे  नहीं  डरते  समाज  की  निंदा  से
वे  पकड़े  भी  जाते  हैं  रंगे  हाथ
तो  उनका  बाज़ार-मूल्य  बढ़  जाता  है  !

वे  अपनी  अतिरिक्त  कमाई  का
कुछ  हिस्सा
नियमित  रूप  से  चढ़ाते  हैं
तिरुपति  और  शिर्डी  के  भगवानों  को
और  अपने  से  ऊंचे अफ़सरों  को  !

उनके  बच्चे 
मंहगे  पब्लिक  स्कूलों  में  पढ़ते  हैं
देश  और  विदेश  में
और  बड़े  हो  कर 
अफ़सर,  उद्योगपति,
बड़े  व्यापारी  बनते  हैं  
अपने  माता-पिता  से  भी  ज़्यादा
कमाने  लगते  हैं....

न्याय-अन्याय,  उचित-अनुचित,  पाप-पुण्य,
अपराध  और  दण्ड
किसी  बात  का  भय  नहीं  होता
उन्हें  ...

वे  हमारे  महान  देश  की 
महान  प्रतिभाएं  हैं
संसार  के  योग्यतम  व्यक्ति...

यही  हैं  वे  लोग
जो  आम  आदमी  के 
ख़ून  के  प्यासे  हैं 
इन्हीं  का  राज  चलता  आया  है
कई  शताब्दियों  से !

यही  हैं  वे  लोग
जो  ज़रूरत  से  ज़्यादा  कमाते  हैं
और 
जिनकी  क़ौम  को  नष्ट  करने  की
क़सम  खाई  है  हमने  !

                                                          ( 2014 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल

....

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

मारा जाएगा तानाशाह...!

जिस  दिन
सच  बोलेगा  तानाशाह
मारा  जाएगा
उसी  दिन  !

सच  बोलना
चाहता  भी  नहीं  वह
भय  लगता  है  उसे
सच  को  स्वीकारने  में
कि  वह 
सच  बोलते  ही
शामिल  हो  जाएगा
आम  लोगों  की  भीड़  में  !

तानाशाह  मानता  है
कि  अति-मानव  है  वह
किसी  भी  अन्य  मानव  की  तुलना  में
यद्यपि  वह  स्वयं  जानता  है
कि  सच  नहीं  है  यह  …

क्या  सचमुच  इतना  डरता  है
तानाशाह
अपनी  मृत्यु  से  ??

वह  जीना  चाहता  है
किसी  भी  मूल्य  पर
चाहे  इसके  लिए
कितने  ही  मनुष्यों  कि  बलि
क्यों  न  लेना  पड़े  उसे  !

फिर  भी
कहीं  न  कहीं  अपने  अंतर्मन  में
अच्छी  तरह  से  जानता  है  वह
कि  मरना  ही  होगा  उसे  भी
एक  दिन  !

दरअसल,  हर  तानाशाह  डरता  है
अपनी  मृत्यु  से
क्योंकि  जानता  है  वह
कि  मृत्यु  से  बड़ा  सच
और  कुछ  नहीं  होता  …

जिस  दिन  वह
मृत्यु-भय  से  मुक्त  होगा
और  सच  बोलने  का  साहस  करेगा
उसी  दिन  मर  जाएगा

उसे  किसी  अन्य  शत्रु  की
ज़रूरत  नहीं  है
मरने  के  लिए
उसकी  अंतरात्मा  काफ़ी  है
और  उसके  पापों  का  बोझ  भी
उसे  मुक्ति  दिलाने  के  लिए  !

तानाशाह  से  मुक्ति  चाहिए
तो  प्रेरित  कीजिए  उसे
सच  बोलने  के  लिए  !!!

                                                         ( 2014 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्या करोगे अब ?

सावधान,  पक्षियों  !
बहेलिया  घूम  रहा  है
वन-प्रांतर  के  कोने-कोने  में
जाल  फैलाता
सब  पक्षियों  को
उनके  मनपसंद
दाने  डाल  कर  लुभाता  हुआ …

बहेलिए   की  मानसिक  प्रवृत्ति
तुम  से  बेहतर
और  कौन  जान  सकता  है  भला  ?

सारे  पशु-पक्षियों  को  भी
चेता  दो  ज़रा
कि  सारी  वन्य-प्रजातियां
सचमुच
बहुत  बड़े  संकट  में  हैं

केवल  एक  ही  अवसर  तो
चाहिए  होता  है
बहेलिए  को
वन  को  प्राणी-विहीन  बनाने  की
प्रक्रिया  शुरू  करने  के  लिए  !

बात  केवल  वन्य-प्राणियों  की
नहीं  है
इस  बार  दांव  पर  है
वन  का  सारे  का  सारा  पर्यावरण
पेड़-पौधे,  ज़मीन  और  जल
खनिज  और  शीतल  समीर  तक  …

बहेलिए  को  अवसर  मत  दो
बहेलिए  और  उसके  संगी-साथी
व्यापारियों  को …

क्या  करोगे  अब
बहेलिए  को  मार्ग  दोगे
वन  पर  राज  करने  का  ?

                                                ( 2014 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल



मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

56 इंच का सीना...!

तलवार  कह  रही  है
मुझे  ख़ून  चाहिए ...

जब  तक  तलवार  का  होना  ही
अपने-आप  में 
पर्याप्त  कारण  है
तानाशाहों  के  जन्म  का
और  मनुष्यता  के  अवसान  का !

शायद  ही  कोई  अन्य  आविष्कार  हो
मनुष्य-जाति  का 
जो  इतना  बड़ा  शत्रु  हो
स्वयं  अपने  ही  जन्म-दाता  का  !

तानाशाह  चाहता  है 
अपनी  भोथरी  तलवार  के  दम  पर
सिकंदर  बन  जाना
यह  जानते  हुए  भी 
कि  अब 
देवी-देवता  भी  ए.के. 56  रखते  हैं
अपने  हाथ  में  !

लेकिन  तलवार  की  प्यास 
बुझती  नहीं 
इतनी  सरलता  से
चाहे  किसी  सैनिक  के  हाथ  में  हो
या  तानाशाह  के...

यदि  युद्धोन्माद  पूरा  नहीं  हुआ
तानाशाह  का 
तो  स्वयं  उसी  के  प्राण  भी 
मांग  सकती  है 
तलवार....

आख़िर  और  कहां  मिलेगा
56 इंच  का  सीना  तलवार  को
अपनी  प्यास  बुझाने  को  ?!!!

                                                             ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

...

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

दुर्भाग्य से, महाराज ...

हे  धर्म-इतिहास-संस्कृति  के
परम  ज्ञाता
महाराज …
आपको  स्मरण  नहीं  क्या
कि  तिल-भर  भूमि  के  लिए
लड़ा  गया  था
मनुष्यता  के  इतिहास  का
दुर्द्धर्ष-तम  युद्ध…

हां,  यह  सत्य  है
कि  उस  महाभारत  में  नहीं  थी
हम  किसानों  की  कोई
सक्रिय  भूमिका
किंतु  इस  बार
चैन  से  नहीं  जीने  देंगे  हम
अपने  खेतों  पर
कुदृष्टि  डालने  वालों  को

सत्य  यह  भी  है
कि  इस  बार  हर  महाभारत
राज-परिवारों  के  बीच  नहीं
होगा  किसान  और  हर  राजवंशी  के  बीच

हमारी  चुनौती  है
कि  इस  बार
हमारे  घर  का  कोई  अभिमन्यु,
कोई  घटोत्कच
या  कोई  भी  एकलव्य
प्राण  नहीं  देगा
अन्यों  की  राज-लिप्सा  के  कारण !

बस  करो,  महाराज
अनंत  उर्वरा कृषि-भूमि  का
मात्र  स्वार्थ  के  लिए  व्यापार !
मत  करो  पूंजीपतियों  की
अनुचित  दलाली
मत  बेचो  अपनी  आत्मा
क्षण-भंगुर  राज-सत्ता  के  लिए...

इस  समय  का  सबसे  बड़ा  सत्य
यही  है  महाराज
कि  हर  किसान  सन्नद्ध  है
अपने  और  अपनी  भावी  पीढ़ियों  के
हितों  की  रक्षा  के  लिए
और  तैयार  है
संसार  की  किसी  भी  महाशक्ति  के  विरुद्ध
युद्ध  के  लिए !

दुर्भाग्य  से,  महाराज
तुम्हारा  अंतिम  सत्य  यह  है
कि  तुम
जानते  ही  नहीं  कि  इस  बार
केवल  पराजय  ही  रह  गई  है
तुम्हारे  हाथ  में  !

                                                            ( 2014 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

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बुधवार, 29 जनवरी 2014

क्या देंगे विरासत में ?

शब्द  बचे  ही  कहां  हैं
अब  गांठ  में
कि  ख़र्च  कर  दिए  जाएं
कविताई  में  !

बहुत  मुश्किल  से  सहेजी  थी
यह  पूंजी  पुरखों  ने
और  हमारे  समय  में
पता  नहीं  कहां-कहां  से  चले  आए
इसे  लूटने  वाले …
और  हमारी  पीढ़ी  इतनी  कृतघ्न
कि  ज़रा-से  प्रलोभन  पर
बिकते  रहे,  बेचते  रहे  अपनी  नैतिकता
ईमानदारी,  संस्कार,  विवेक…

किसी  ने  नहीं  सोचा  कभी
कि  क्या  देंगे  विरासत  में
अपने  बाल-बच्चों  को
यदि  शब्द  भी  नहीं  हाथ  में  !

                                                             ( 2014 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

रविवार, 26 जनवरी 2014

वह गणतंत्र हमारा है !

ख़ूनी  सरमायादारों  का
पूंजी  के  ताबेदारों  का
सारे  कुत्सित  व्यापारों  का
बिके  हुए  अख़बारों  का 
जो  मारा  है
वह  गणतंत्र  हमारा  है !

नेताओं  की  लूटमार  से
सरकारों  के  जन-संहार  से
जाति-धर्म  के  कार-बार  से
मंहगाई  की  तेज़  धार  से
बार-बार  जो  हारा  है
वह  गणतंत्र  हमारा  है  !

अमरीकी  घुड़की   के  आगे
घुटनों  के  बल  खड़ा  हुआ  है
विश्व-बैंक   के  दरवाज़े  पर
औंधे  मुंह  जो  पड़ा  हुआ  है
वॉलमार्ट  से  मोनसैंटो
सबका  एक  सहारा  है
वह  गणतंत्र  हमारा  है  !

                                                 ( 2014 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

उठो, साथी !

जो  अधमरा  शरीर
सड़क  पर  पड़ा  है
वही  है  महान  भारत  का
भिखमंगा गण !
और जो खड़ा है
उस अधमरे  शरीर के  सीने  पर
पांव  रख  कर
वही  है  तंत्र !

हास्यास्पद  कहें  या  वीभत्स
मगर  सत्य  यही  है
कि  हर  अधिनायक  इस  देश  का
चुना  जाता  है
तथाकथित  रूप  से
इसी  'गण'  से  मत  ले  कर !

यह  समय  शोक  मनाने  का  नहीं  है
जैसे  मरते  हुए  केंचुए  में  रह-रह  कर  उठती  है
जीवन  की  लहर
जैसे  पारंपरिक  युद्धों  में
सिर  कट  जाने  के  बाद  भी
लड़ते  रहते  थे  रुंड
ठीक  उसी  तरह  अचानक
न  जाने  कब  उठ  खड़े  होंगे
सड़क  पर  पड़े  हुए  गण
अपनी  घायल  देह  लिए ...

सारा  संसार  जानता  है
कि  यही  गण  है
जो  भयंकरतम  शस्त्रास्त्र  को
अपनी  दुर्बल  काया  पर  झेल  कर
किसी  भी  महानायक
किसी  भी  अधिनायक  की  सत्ता  को
मिट्टी  में  मिला  देता  है
समय  आते  ही  !

समय  कब  आएगा  मगर
अगली  बार  ?

उठ  जाओ,  महान  भारत  के  महा-मनुष्य
बहुत  हो  चुकी  हिंसा-प्रतिहिंसा
बहुत  हो  चुके  भ्रम-विभ्रम
एक  लक्ष्य
एक  मार्ग
गण  की  क्रांति
जन-जन  की  क्रांति  !

उठो,  साथी  !
मृत्यु  का  डर  जिसे  हो
वह  योद्धा  नहीं
और  'जन-गण-मन'  तो
कदापि  नहीं ! 

                                                                 ( 2014 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

...


शनिवार, 18 जनवरी 2014

सामंत की बकरी ...!

च्च च्च च्च च्च !
बहुत  बुरा  हुआ  सचमुच
सामंत  की  बकरी  मर  गई  !

सामंत  का  दुःख  बहुत  बड़ा  होता  है
शोक  मनाओ,  मूर्खों  !
अपनी  बकरियों  की  चिंता  करो, 
हानि  उठाने  के  लिए  नहीं  होता
सामंत  का  जन्म  !
आज  नहीं  तो  कल
आ  ही  धमकेंगी
सामंत  की  सेनाएं
क्या  पता  किसकी  बकरी  पर
मन  आ  जाए
सैनिकों  का  !

मीडिया  से  सबक़  सीखो

अपने  चेहरों  पर  कालिख़  पोत  लो
मातम  मनाओ
और  अपनी  बकरियों  को
बांध  कर  रखो  बाड़े  में  …

मज़ाक़  नहीं  है
सामंत  की  बकरी  का  मरना  !

                                                         ( 2014 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

हत्प्रभ है पुराना जादूगर !

बहुत  परेशान  है  जादूगर
आजकल !

सारे  मंत्र  निर्जीव  होते  जा  रहे  हैं
सारी  युक्तियां  निष्प्राण
दर्शक-दीर्घा  सूनी  हो  रही  है
निरंतर...

जादूगर  को  काठ-सा  मारता  जा  रहा  है
कुछ  समय  से
जब  से  एक  नया  जादूगर  आ  गया  है
शहर  में
मंत्र  पुराना  जादूगर  पढ़ता  है
प्रभाव  प्रकट  होता  है
नए  जादूगर  के  मंच  पर ...

पुराना  जादूगर  हत्प्रभ  है
कि  कैसे  उसकी  जादुई  शक्तियां
काम  करने  लगी  हैं
उसके  शत्रु  के  पक्ष  में  !

सरासर  यह  शक्तियों  की  चोरी  का
षड्यंत्र  है
पता  नहीं  किसका  मस्तिष्क 
काम  कर  रहा  है
इस  सबके  पीछे

दुर्भाग्य  यह  है  कि
विधि  की  पुस्तकों  में 
अपराध  की  श्रेणी  में  नहीं  आता
यह  कृत्य  !

उसकी  शक्तियां  यदि  काम  कर  रही  होतीं
पूर्ववत
तो  पता  नहीं,  कब  का
ठिकाने  लगा  चुका  होता  वह
नए  जादूगर  को...
जैसे  अपने  हज़ारों  तथाकथित 
शत्रुओं  को  लगा  चुका  है  अभी  तक !

यहां  तक  भी  ठीक  था
किंतु  उसके  अपने  प्रशंसक  भी
न्याय-अन्याय  की  बात  करने  लगे  हैं
नए  जादूगर  के  प्रभाव  में  आ  कर !

यद्यपि  अनावश्यक  है  यह  कथन
कि  सबको  देना  पड़ता  है
अपने  कर्मों  का  हिसाब
इसी  जन्म  में
परंतु  मन  नहीं  मानता
पुराने  जादूगर  का ...

क्या  ईश्वरत्व  को  प्राप्त  कर  चुका
कोई  मनुष्य
फिर  से
प्राप्त  हो  सकता  है
साधारण  मनुष्यत्व  को  ?

इस  प्रश्न  का  उत्तर
केवल  वही  जानते  हैं
जो  विश्वास  करते  हैं  
दैवीय  शक्तियों  में  

हम  तो  दर्शक-मात्र  हैं 
इस  खेल  के...!


                                          ( 2014 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

...



बुधवार, 15 जनवरी 2014

भेड़ों का उत्तरदायित्व !

फिर  एक  बार
सौंप  दिया  गया  है
रेवड़ों  का  उत्तरदायित्व
अन्धों  के  हाथों  में
इस  गहन  विश्वास  के  साथ 
कि  हर  शाम  आ  जाएंगी  सुरक्षित
सभी  भेड़ें
अपने  बाड़े  में !

काश !  सारे  मांसाहारी  वन्य-जीव
इस  'सदाशयता'  को  समझ  पाते !

समय  हालांकि  फिर  उपस्थित  है
रेवड़ों  के  चरवाहों  के  चुनाव  का

सबसे  अधिक  उत्कंठित  हैं
मांसाहारी  जीव
यदि  किसी  दृष्टिवान  के  हाथ 
सौंप  दी  गई  भेड़ों  की  कमान,  तो  ?

कुछ  उत्तरदायित्व  भेड़ों  का  भी  है
शायद
अपने  प्राण  बचाने  का !!!

                                                            ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

...



रविवार, 12 जनवरी 2014

बदलाव का उत्तरदायित्व...

दुःख-भरी  कविताओं  से
कहीं  अधिक  भयंकर  है
आधुनिक  समय  का  यथार्थ

दुर्भाग्य  यह  है
कि  यथार्थ  को  बदलने  का 
उत्तर-दायित्व
जिन  शक्तियों  पर  है
वे  सब  की  सब 
विरोधी  हैं  जनता  की
और  केवल  जन-शत्रु  ही  हैं
जो  सुखी  हैं
इस  क्र्रूर  समय  में...

उस  जनता  को 
कोई  अधिकार  नहीं  शिकायत  करने का
जो  खड़ी  नहीं  होती
अन्याय  के  प्रतिकार  के  लिए
और  चुपचाप  सहती  रहती  है
हर  अत्याचार...

लोकतंत्र  है
तो  व्यवस्था  बदलने  का  जिम्मा
तंत्र  से  अधिक  है
लोक  पर !

अब  समय  बहाने  बनाने  का  नहीं
व्यवस्था  बदलने  का  है
और  सरकार  बदलने  का भी  !

                                                              ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

...
 

शनिवार, 11 जनवरी 2014

संकट की इस घड़ी में...

रक्त  के   दबाव  से
फटने  लगी  हैं
धमनियां  और  शिराएं

मौसम  इतना  क्रूर  कैसे
होने  लगा  है  आजकल  ?

हां,  यह  सत्य  है  कि  इसकी  पृष्ठभूमि
तैयार  की  है
कुछ  जाति-द्रोही  मनुष्यों  ने
जो  नहीं  चाहते  कि  प्रकृति
एक  समान  व्यवहार  करती  रहे
संसार  के  सभी  मनुष्यों 
और  अन्य  प्राणियों  के  साथ
कि  जो  मानते  हैं  अपने  को
संसार  का  नियंता
अपनी  गोरी  चमड़ी  के  दम्भ  में
और  बुद्धि  के  अतिरेक  में
बिना  यह  समझे
कि  प्रकृति  ने 
समान  ही  जन्म  दिया  है
तमाम  नस्लों  को

वे  अन्यायी  यह  भी  नहीं  जानते
कि  जब प्रकृति  प्रतिशोध  लेती  है
तो  नहीं  देखती
काली  और  गोरी  त्वचा  का  फ़र्क़

यद्यपि  हम  समर्थन  करते  हैं
प्रकृति  के  प्रतिशोध  का
किंतु  निर्दोष  प्रजातियों  पर  
उचित  नहीं  अकारण  इतना  अत्याचार

यदि  प्रकृति  ही  भूल  जाए
दोषी  और  निर्दोष  का  अंतर...
तो  मुश्किल  नहीं  होगा  क्या
पृथ्वी  के  समय-चक्र  का  चलना ?

प्रकृति  स्वयं  बताए
कि  निर्दोष  मनुष्य  क्या  करें
संकट  की  इस  घड़ी  में  ? 

                                                            ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

...

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

यथार्थ की धरा पर...!

मन  के  किसी  अज्ञात
नन्हे-से  कोटर  में
दुबक  कर  बैठी  रहती  हैं
अच्छे  दिनों  की  स्मृतियां…

बचपन  के  बिखरे  पन्नों  में
यहां-वहां
अक्सर  अधूरे  छूट  गए  चित्र
छोटी-छोटी  बातों  पर
मित्रों  का  रूठना-मनाना
भाई-बहनों  की  छेड़ छाड़…
किशोरावस्था  में
शरीर  का  धीरे-धीरे  वयस्क  होते  जाना
अचानक  किसी  का
अच्छा  लगने  लगना
अक्सर  बिना  किसी  ठोस  कारण  के…

यथार्थ  की  धरा  पर
पहला  क़दम  पड़ते  ही
न  जाने  कहां  बिला  जाते  हैं
सारे  स्वप्न...

यहां  तक  कि
किराने  का  हिसाब  भी
डराने  लगता  है  किसी प्रेत-जैसा !

कितना  भयंकर  होता  है
वयस्क  हो  जाने  का  एहसास
और  उससे  भी  अधिक
बचपन  के  बिछुड़ जाने  का !

                                                        ( 2014 )
                                                 
                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

...

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

मां को याद करना !

जीवन-साथी  की  अनुपस्थिति  में
दो  समय  का  भोजन 
तैयार  करते  समय
अक्सर  पूछा है  मैंने 
स्वयं  से
कि  आख़िर  क्या  ज़रूरी  है
जीवन  के  अंतिम  क्षण  तक 
साम्यवादी  बने  रहना
और  किसी  को  नौकर  न  रखना ...
मात्र  आधा घंटे के  काम  के  लिए
दो-दो  घंटे  जूझते  रहना
और  कच्ची-पक्की  रोटियां
खा  कर
संतुष्ट  हो  रहना  ?

जब-जब  मैं  इस  विचार  तक
धकेला  जाता  हूं
स्वयं  अपने  ही  मस्तिष्क   के  द्वारा
मेरी  चेतना 
मेरे  सोच  को  धिक्कारना 
शुरू  कर  देती है  !


मैं  जानता  हूं 
कि  मैं 
कभी  भी  नौकर  शब्द  को 
स्वीकार  नहीं  कर  पाउंगा
कम से कम अपने  घर  में
और  मेरी  जीवन-संगिनी  ?
वह  तो  किसी  भी  मूल्य  पर  नहीं !

एक  सीधा-सरल  उपाय  है
जो  मेरी  जीवन-संगिनी  याद  दिलाती  रहती  है
बाज़ार  का  खाना....

किंतु,  अकेला  होते  ही
जब  भी  मैं
भोजन  और  बाज़ार  के  अंतर्सम्बंधों  पर
सोचता  हूं
फिर  मुझे  मेरी  अंतश्चेतना  धिक्कारने  लगती  है !

ज़रा  सी  देर  की  असुविधा,
ज़रा  सा  समय
अपने  ऊपर  ख़र्च  नहीं  कर  सकते
और  अपने-आप  को
'साम्यवादी',  'प्रगतिशील'  और  पता  नहीं
क्या-क्या  कहते  हो !

इस  अत्यंत  सुखद  प्रसंग  का
अंत  हमेशा  एक  ही  तरह  से  होता  है
-अपने  हाथ  से  बना  कच्चा-पक्का
किंतु  श्रम-गंध  से  सुगंधित
स्वादिष्ट  भोजन
खाते-खाते
मां  को  याद  करना  !

                                                      ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

...









रविवार, 5 जनवरी 2014

क्या सोचा आपने ?

इतना  सरल  भी  नहीं
समय  की  दिशा  और  रफ़्तार
बदल  पाना
कि  चंद  नारे  उछाले
और  हो  गया !

बहुत-कुछ  झेलना
और  भोगना  पड़ता  है
समय  बदलने  के  लिए
बहुत-से  अन्याय  और  अत्याचारों  से
निबटना
शासक-वर्ग  के  निशाने  पर  आना
और  घर-बार  भूल  कर
पूरी  चेतना  और  ऊर्जा
संघर्ष  में  झोंक  देना  …

यदि  आपको
कपड़े  मैले  हो  जाने  का
भय  न  सताता  हो
दूसरों  के  दुःख-दर्द  को
अपना  बना  लेना  आता  हो
यदि  आपको  शोषण  का  वास्तविक  अर्थ
समझ  आता  हो
यदि  आपको  इतिहास  की  सही-सही
जानकारी  हो
यदि  आपको  अपने  पूर्वजों  पर  हुए
अत्याचारों  से
अपनी  और  अपनी  भावी  पीढ़ी  को
बचाना  कर्त्तव्य  लगता  हो
तो  स्वागत  है  आपका
उन  योध्याओं  की  जमात  में
जो  लगे  हैं  समय  को
मनुष्य  के  अनुकूल  दिशा
और  गति  देने  में  …

तो
क्या  सोचा  आपने
समय  को  बदलने  के  बारे  में ???

                                                 ( 2014 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

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शनिवार, 4 जनवरी 2014

खरे सोने का रंग !

सिर्फ़  किसान  ही  जानते  हैं
पूस  की  रात  का  अर्थ !

सिर्फ़  किसान  ही  जानते  हैं
कोहरे, पाले  और  बरसते  मेह  के  बीच
प्राण  लेने  पर  उतारू
हवाओं  से  बच  कर
खेत  में 
पानी  लगाने  की  कला

सिर्फ़  किसान  ही  जानते  हैं
गेहूं  की  बालियों  में
रस  भरने  का  सुख

सिर्फ़  किसान  ही  जानते  हैं
कैसा  होता  है
खरे  सोने  का  रंग !

किसान  नहीं
तो  और  किसे  तय
करना  चाहिए 
अपनी  उपज  का  मूल्य ?

                                            ( 2014 )
            
                                     -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

नक़ली प्रधानमंत्री !

उफ़ ! कितना-कुछ  नक़ली
दिखाई  देने  लगा  है
आजकल  !


नक़ली    नायक
नक़ली  समर्थक
नक़ली  देश
नक़ली  लोकतंत्र 
नक़ली  चुनाव


नक़ली  लाल  क़िला
नक़ली  संसद
नक़ली सरकार
नक़ली  प्रधानमंत्री  !

तुम्हारी  झाड़ू  कहां  है ?
आओ,  मिल  कर  साफ़  करें
सारा  नक़ली  कचरा  !

                                                       ( 2014 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

आख़िर किस आशा में ...?

भविष्य  के  गर्त्त  में
छिपे  हैं
न  जाने  कितने  गहन  अंधकार
अनगिनत झंझावात
भूकम्प
और  जल-प्लावन …

समय  निर्मम  हो  रहा  है
मनुष्यता  के  प्रति
जैसे  कि  प्रतिशोध  ले  रहा  हो
मनुष्य  से
महान  धरा  और  प्रकृति  के
अपमान  का 

जिन्हें  चिंता  होनी  चाहिए
वे  ही  उत्तरदायी  हैं
वर्त्तमान  और  भावी
महाविनाश  के

कहने  को
सारी  सभ्यताएं
सारी  संस्कृतियां
और  सारे  देश
स्वतंत्र  और  संप्रभु
लगे  हुए  हैं
इनी-गिनी  महाशक्तियों  की
चाटुकारी  में....

आख़िर  किस  आशा  में
जी  रहे  हैं  देश
किस  क्रांति  या  प्रति-क्रांति  की
प्रतीक्षा  में  ???

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

अंतिम पराजय के लिए !

जैसा  ठीक  समझें  हुज़ूर !
आप  चाहेंगे  तो  फिर  लड़  लेंगे
आप  तो  विशेषज्ञ  हैं
युद्ध-कला  के

आप  इतने  उत्कंठित  क्यों  हैं
लेकिन  ?
आप  सोच  रहे  हैं  संभवतः
असावधानी  और  अति-आत्म-विश्वास
ले  डूबा  आपको
किंतु  अर्द्ध-सत्य  है  यह
वस्तुतः 
आप  जब  तक  उत्कंठित  हैं
तब  तक
कभी  समझ  नहीं  पाएंगे
अपनी  पराजय  के  वास्तविक  कारणों  को !

वास्तविकता  तो  यह  है
कि  आपका  चरित्र
आपकी  नीतियां
आपकी  विचारधारा
और  आपकी  रण-नीति
इतने  अधिक  प्रदूषित  हो  चुके  हैं
कि  जब  भी
सत्य,  ईमानदारी  और  न्याय  के  पक्षधर
उतरेंगे  आपके  विरुद्ध
मैदान  में
तब-तब 
केवल  पराजय  ही  हाथ  आनी  है  आपके

बेकार  की  ज़िद  छोड़िये,  हुज़ूर !
हम  जनता  हैं
आपकी  सारी  सम्मिलित  सेनाओं  से
सैकड़ों-हज़ार  गुना

हम  तो  ख़ाली  हाथ  ही  बहुत  हैं
सरकार  !

चुनौती  आपने  दी  है
युद्ध  तो  लड़ना  ही  होगा  आपको

तैयार  हो  जाइए,  महाशय
अपनी  अवश्यंभावी 
अंतिम  पराजय  के  लिए  !

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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