सोमवार, 4 मार्च 2013

उस दिन के लिए कविता...

न  था  कुछ  भी, तो  थी  कविता
न होगा  कुछ, तब  भी  रहेगी  कविता

कि  कविता  मोहताज  नहीं  है
किसी  भाषा, किसी  लिपि
किसी  धर्म, राष्ट्र  या  सिद्धांत  की
या  समय, या  ब्रह्माण्ड  की

कविता  जानती  है
अपना  समय, अपना  संसार, अपना  मनुष्य  रचना
और  न्याय  करना
चमत्कारी  महापुरुषों  का
और  थोथी  आस्थाओं  के  व्यापारियों  का

कि  कविता  अकेली  है
जिसका  धर्म  है  ईश्वरत्व  धारण  करना
कि  वही  है  अनादि-अनंत-अछेद-अभेद
निर्गुण-निराकार  जल्व: ए नूर
अनहद  नाद

कविता  थी, है  और  रहेगी
किन्तु  वह  न्याय  अवश्य  करेगी
और  संहार  भी
अपने  अर्थ  खो  चुके  शब्दों
जैसे  ईश्वर और मनुष्य .... और  समय  का
फिर  रचेगी  वह  नए  शब्द
पंचतत्व  में  विलीन  शब्दों  की  राख़  से

उस  दिन  के  लिए
जब  कविता  अपना  धर्म  निभाने  लगे
अपनी  सच्ची  आस्थाओं  को  बचाए  रखना
कि  पा  सको  फिर  नया  जन्म
और  पहचान  सको  अपने  होने  का  अर्थ !

                                                         ( 26.02.2003 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

* अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु  उपलब्ध।

2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत खूब ... कविताएं जो अपना धर्म निभाती हैं इतिहास में रह जाती हैं ...

Dinesh pareek ने कहा…

बहुत खूब आपके भावो का एक दम सटीक आकलन करती रचना
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।