शुक्रवार, 8 मार्च 2013

रस्सी कूदती हुई लड़कियां

सुबह-सबेरे
कोहरे  की  छाती  फोड़  कर
उग  आती  हैं  मैदान  में
रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियां

एक  शोर  उभरता  है
एक  लय  बंधती  है
एक  गीत  मचलता  है
रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियां
कुछ  गुनगुनाती  हैं
कोहरे  की  दीवारें  प्रतिध्वनित  करती  हैं
हिलती  हैं
टूट  जाती  हैं -
और  गीतों  के  बोल
हवाओं  के  पंखों   पर  बैठ  कर
उड़  जाते  हैं !

इस  समय
रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियों  के  पांव
ज़मीन  से  काफ़ी  ऊपर  होते  हैं

फिर  लड़कियां  खिलखिलाती  भी  हैं
बात-बात  पर
उनकी  जेबों  में  रखे  हुए  पैसे
और  चोटियों  में  खुंसे  हुए  फूल
गिर  जाते  हैं

रस्सियां  ऊपर-नीचे-दाएं-बाएं
लहराती  हैं

धूप
धीरे-धीरे
दिन  की  लंबी  सड़क  नापती  हुई
काफ़ी  दूर  आ  जाती  है
छायाएं  बौनी  होती  जाती  हैं
और  लड़कियों  की  गति
तेज़, तेज़ तर  होती  जाती  है

माथों  पर  बूंदें  छलछलाती  हैं
चेहरों  पर  तमतमाहट
और  सांसों  में  तूफ़ान  उठते  हैं
रस्सियों  की  मूठों  कसे  हुए  हाथ
छिल  जाते  हैं
और  सूरज  के  सिर  पर  आते-आते
लड़कियां  मुरझा  जाती  हैं

उनके  पांव  रुकते  नहीं
हालांकि  बड़ी  मुश्किल  से  उठते  हैं

धूप  के  ढलने  का  समय  निश्चित  होता  है
सुबह  के  उड़े  हुए  बोल
अपना  अश्वमेध  पूरा  कर
लौट  आते  हैं
नई  कहानियां
नए  गीतों  की
संभावनाएं  ले  कर

और  लड़कियां  धूप  के  पटाक्षेप  के  साथ
इंच-इंच
धरती  में  समा  जाती  हैं।

कभी-कभी  लड़कियों  के  मां -बाप
उनकी  रस्सियां  छिपा  देते  हैं
लड़कियां  उस  दिन  उदास  होती  हैं
फिर  भी  मैदान  में  उगती  हैं
ख़ाली  हाथ
नंगे  पांव
और  खुले  हुए  बाल  ले  कर

उन्हें  अपना गीत
उसकी  स्वरलिपि
उसकी  ताल  और  लय
सब-कुछ  याद  है

वे  पूर्व-निश्चित  क्रम  में
गोल  घेरा  बनाती  हैं
और  अपने  सफ़ेद  होठों  से
अपना  गीत  गुनगुनाते  हुए
हाथों  को  गति  देती  हैं
खुले  हुए  बाल  हवाओं  में
लहराते  हैं
और  पांव
ज़मीन  से  ऊपर  उठ  जाते  हैं
अन्य  दिनों  की  अपेक्षा  कहीं  अधिक  ऊंचाई  तक

उस  दिन  लड़कियां  परवाह  नहीं  करतीं
मई-जून  के  साफ़  आकाश  की
जिनमें  पारे  की  लकीरें
थर्मामीटर  की  सीमाएं  तोड़  कर
चिलचिलाने  लगती  हैं

लड़कियां  थकती  नहीं
और  न  मुरझाती  हैं
उनके  कोमल  तलुओं  में  तिनके
अपनी  नोकें  गड़ा  देते  हैं
और  उनके  निश्चित  क्रम  में  घूमते  हुए  हाथ       फ्रा
दर्द  से  फटने  लगते  हैं
धूप  आंखों  में  पानी  भर  जाती  है।
और  हवाएं  उनकी फ्रॉकों  से  लिपट  कर
सरसराती  हैं
बालों  में  उलझ  जाती  हैं -
-एक  सिम्फ़नी
धीरे-धीरे
फ़िज़ाओं  में  घुलती  जाती  है

उस  दिन  शाम  के  बाद  भी
लड़कियां  धरती  में  नहीं  समातीं
सुनसान  अंधेरों  के  बीच
उनके  शरीर  झिलमिलाते  हैं
और  सारे  शहर  में  गूंजते  हैं
तब  लड़कियों  के  मां-बाप
अपने  छप्पर  टटोलते  हैं
और  उनकी  छिपाई  हुई  रस्सियां  निकाल  कर
वापस  दे  आते  हैं

एक  दिन

रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियां                                                        

अपनी  रस्सियां  मैदान  में  छोड़  कर
तुम्हारे  घरों  में  आएंगी
और  मांएं  बन  जाएंगी
और  तुम्हारी  नन्हीं  लड़कियां
हर  सुबह  मैदान  में  ऊगेंगी
और  अपनी  मांओं  की  छोड़ी  हुई  रस्सियां
उठा  कर  कूदेंगी

मैदान  सब  लड़कियों  को  अच्छा  लगता  है
और  उनका  रस्सी  कूदना  मैदान  को।

                                                             ( 1982 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

*प्रकाशन: 'साक्षात्कार', भोपाल ( 1983 ).   पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

 

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