गुरुवार, 16 मई 2013

हमारे हाथ की चोट

न,  हाथ  मत  उठाना  मालिक !
यह  अधिकार  नहीं  बेचा  है  हमने
और  बेचेंगे  भी  नहीं

यह  चेतावनी  है,  मालिक
एक  दम  खुली  हुई
अगली  बार  किसी  मज़दूर  की  तरफ़
आंख  भी  मत  उठाना
न  ही  काम  से  बाहर  करने  की  धमकी  देना
तनख़्वाह  काटने  की  हिम्मत  तो  करना  ही  मत

मालिक,  यही  बहुत  है  तुम्हारे  लिए
कि  हम
सवाल  नहीं  उठाते  तुम्हारे  आसमान  से  भी  ऊंचे  मुनाफ़े  पर
नहीं  देखते  तुम्हारे  बही-खाते
नहीं  ईर्ष्या  करते  स्वर्ग नुमा  साम्राज्य  पर

लेकिन  इसका  मतलब  यह  न  लिया  जाए
कि  हम  हमेशा  तुम्हारे  'वफ़ादार'  ही  रहेंगे
कि  हम  अपने  आत्म-सम्मान  को  भी  बेच  देंगे
चंद  रुपयों  की  ख़ातिर !

ख़रीदना-बेचना  तुम्हारा  शौक़  है
तुम  पुलिस  ख़रीद  सकते  हो
सरकारी  अफ़सर  और  बे-ईमान  नेता
यहां  तक  कि  पूरी  की  पूरी  सरकारें  भी

मगर  मज़दूर  का  ईमान  है,  मालिक
किसी  और  ही  मिट्टी  का  बना  हुआ

हम  तुम्हारे  अंगरक्षकों  से  नहीं  डरते
हम  तुम्हारी  ज़र-ख़रीद  पुलिस, सरकारी  अफ़सर, बे-ईमान  नेता
और  बिकाऊ  सरकारों  से  भी  नहीं  डरते
क्योंकि  हम  जानते  हैं  कि  हमारे  बिना
चार  दिन  भी  नहीं  टिक  पाएगा  तुम्हारा  साम्राज्य !

समय  बदल  चुका  है,  मालिक
हमें  चुनौती  मत  देना
हमारा  हाथ  जब  तक  श्रम  तक  उठे   तभी  तक  ठीक  है
बदला  लेने  के  लिए  उठा  तो  सह  नहीं  पाओगे  तुम !

हमारे  हाथ  की  चोट  कितनी  भारी  है
यह  अपने  आस-पास  पड़े  पत्थरों  से  पूछो !

                                                                                        ( 2013 )

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

*सद्यः रचित/ मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित। पूर्वानुमति पर प्रकाशनार्थ उपलब्ध।

5 टिप्‍पणियां:

कपूर रस्तोगी ने कहा…

इस रचना द्वारा सच को सामने लाया गया है.बहुत ही बेहतरीन रचना है.

आर्यावर्त डेस्क ने कहा…

nice !!!

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Unknown ने कहा…

अवचेतन में दबी मज़दूरों की पीड़ा / आक्रोश को दर्शानेवाली , उनके स्वाभिमान को बढ़ानेवाली , मलिकरूपी दरिन्दों को आत्मचिंतन के लिये मज़बूर करनेवाली कविता...... अच्छी लगी , शुक्रिया..!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
साझा करने के लिए आभार!

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

बहुत ही सार्थक रचना ..जिनती तारीफ़ करूंग कम होगी ..मालिकों का भ्रम तोडना बहुत जरूरी है ..शोषण की भी आखिर कोई सीमा होती है ...लाजबाब