शनिवार, 2 मार्च 2013

मारे जाओगे, तानाशाह

वह  जो  जंगल  है  तुम्हारी  नज़र  में
वह  जिस  दिन  आगे  बढ़ेगा
तुम्हारे  क़िले-नुमां  महल  की  तरफ़
और  उतर  जाएगा  तुम्हारी  धमनियों  में
पारा  बन  कर
उस  दिन  मारे  जाओगे  तुम

मारे  जाओगे, तानाशाह
वैदिक  ऋचाओं  से  अग्नि  प्रज्ज्वलित  कर
निर्दोष  मानव-रक्त-मांस  की  आहुतियां
ब्रह्म-राक्षसों  को  जगाने  वाले
मद-अंध  अघोरी
तुम्हें  पता  है
जंगल  की  शक्ति ?

तय  है  कि  जंगल  आएगा  ही
तुम्हारे  दरवाज़े
तुम्हारी  'फ़ूल-प्रूफ़' सुरक्षा-प्रणालियों  को
नेस्त-नाबूद  करता
-उसकी  तेजाबी  तरलता  अबंध्य  है
गर्म  लावे  की  तरह

जंगल  एक  प्रश्न  है
चार वेद, अठारह  पुराण
और  असंख्य  स्मृति-संहिता-उपनिषद्
धर्म शास्त्रों  के  समक्ष
और  अकेला  जवाब
तुम्हारे  तीर-तलवार-त्रिशूल
तुम्हारी  परमाणु-क्षमता
और  नाभिकीय  बमों  का
-तुम्हारी  निर्लज्ज  राज्य-लिप्सा
तुम्हारी  वीभत्स  युयुत्सा  का

वह  जो  जंगल  है  तुम्हारे  सामने
वह  तुम्हें  छोड़ेगा  नहीं !

                                                       ( 03.03.2002 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

* गुजरात में  दंगों  के  बाद  लिखी गई। शेक्स्पियर   के  नाटक 'मैकबेथ' से प्रेरित।
** अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु  उपलब्ध।
 

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