अक्सर ऐसा होता है
कि नींद के पहले
याद आता है उसे
बहुत पहले सुना हुआ गीत:
" सो जा, सो जा बारे बीर
बीर की बलैयां लै लऊं
जमना के तीर "
और नींद
पंख फड़फड़ा कर
उड़ जाती है ....
बचपन में
यही गीत सुन कर
अपना घोंसला छोड़ कर
पता नहीं किस खिड़की से आती थी नींद
और उसके सिरहाने आ कर
ढांप लेती थी उसकी आंखें
और सुबह तक ठहरी रहती थी ..
उसे याद है वह धुंधला चेहरा
ठीक उसकी पहली कॉपी के
धुंधलाए चित्रों-जैसा
जिनमें ही कहीं गड्ड-मड्ड है
उसकी मां की तस्वीर !
अम्मां की थपकियों में जादू था
या कि नींद उनकी सहेली
उसने कभी नहीं सुनी
नींद की आहट
बस, सहेजता रहा पलकों की संदूकची में
सपनों के हीरे-मोती
सपनों को ओढ़े कि बिछाए
यह समस्या नहीं थी तब
जब कभी
वह कच्ची नींद से
चौंक कर जाग उठता
अम्मां बतियाती मिलतीं
जाने किसके साथ
जबकि वहां कोई नहीं होता था
अम्मां, दिये और हवा के सिवा !
तब
अम्मां की उंगलियां
उसके बालों में उलझने लगतीं
और अधूरे छूटे चित्र
पूरे होने लगते
बहुत बार सोचता वह
कि अम्मां सोएं
और वह हवा से, दिये से,
नींद से बतियाए
लेकिन नहीं आता था उसे
नींद का गीत
और न उसकी धुन
और अम्मां जागती रहीं
आख़िरी बार सोने से पहले तक ...
अब न नींद है
न हवा, न नींद
और न अम्मां
बस एक गीत है
बहुत पहले सुना हुआ ...
अम्मां कुछ दिन और रुकतीं
तो वह उनसे गीत को स्वर
और स्वरों को अर्थ देने की तरकीब
ज़रूर पूछता !
( 1984 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'वर्त्तमान साहित्य', 1984 एवं अन्य कुछ पत्र-पत्रिकाओं में। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
कि नींद के पहले
याद आता है उसे
बहुत पहले सुना हुआ गीत:
" सो जा, सो जा बारे बीर
बीर की बलैयां लै लऊं
जमना के तीर "
और नींद
पंख फड़फड़ा कर
उड़ जाती है ....
बचपन में
यही गीत सुन कर
अपना घोंसला छोड़ कर
पता नहीं किस खिड़की से आती थी नींद
और उसके सिरहाने आ कर
ढांप लेती थी उसकी आंखें
और सुबह तक ठहरी रहती थी ..
उसे याद है वह धुंधला चेहरा
ठीक उसकी पहली कॉपी के
धुंधलाए चित्रों-जैसा
जिनमें ही कहीं गड्ड-मड्ड है
उसकी मां की तस्वीर !
अम्मां की थपकियों में जादू था
या कि नींद उनकी सहेली
उसने कभी नहीं सुनी
नींद की आहट
बस, सहेजता रहा पलकों की संदूकची में
सपनों के हीरे-मोती
सपनों को ओढ़े कि बिछाए
यह समस्या नहीं थी तब
जब कभी
वह कच्ची नींद से
चौंक कर जाग उठता
अम्मां बतियाती मिलतीं
जाने किसके साथ
जबकि वहां कोई नहीं होता था
अम्मां, दिये और हवा के सिवा !
तब
अम्मां की उंगलियां
उसके बालों में उलझने लगतीं
और अधूरे छूटे चित्र
पूरे होने लगते
बहुत बार सोचता वह
कि अम्मां सोएं
और वह हवा से, दिये से,
नींद से बतियाए
लेकिन नहीं आता था उसे
नींद का गीत
और न उसकी धुन
और अम्मां जागती रहीं
आख़िरी बार सोने से पहले तक ...
अब न नींद है
न हवा, न नींद
और न अम्मां
बस एक गीत है
बहुत पहले सुना हुआ ...
अम्मां कुछ दिन और रुकतीं
तो वह उनसे गीत को स्वर
और स्वरों को अर्थ देने की तरकीब
ज़रूर पूछता !
( 1984 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'वर्त्तमान साहित्य', 1984 एवं अन्य कुछ पत्र-पत्रिकाओं में। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
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