रविवार, 3 फ़रवरी 2013

बच्चों का मैदान

बच्चों  को  रोको
कि  लड़ें  नहीं  आपस  में
छिन  जाएगा  उनका  मैदान

अनगिनत  आँखें
टटोलती  हैं  मैदान  का  विस्तार
कितने  जंगज़ू  सपने
गगन चुम्बी  इमारतें
बहुराष्ट्रीय  बाज़ार
लम्बी-चौड़ी  फ़ैक्ट्रियाँ
आणविक  अस्त्रों  के  परीक्षण-स्थल ...
बच्चों  के  मैदान  पर
जीत  के  लिए
कितने  हथियार !

बच्चों  को  कहो  कि  खेलें
खेलें  आपस  में  मिल-जुल  कर
बन  जाएँ  दीवार

मैदान
उन्हीं  का  है, बहरहाल।
                                         ( 1985 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

* अप्रकाशित/अप्रसारित रचना।

1 टिप्पणी:

Alpana Verma ने कहा…

सत्य कहती कविता.