मंगलवार, 27 अगस्त 2013

बस, हमारा कन्हैया !

हमें  चाहिए
बस,  हमारा  कन्हैया !

ज़रा  सांवला
मेघ  जैसा  सुयाचित
नयन  सूर्य  के  तेज  से  जगमगाते
वदन  चन्द्रमा  ज्यों
शरद  पूर्णिमा  का
स्निग्ध  स्नेह-अमृत  से
पूरित-प्रकशित…

बड़ी  देर  से  हम  उसे  ढूंढते  हैं
कहां  है,  कहां  है
हमारा  कन्हैया ???

बड़ा  प्यारा-प्यारा
सभी  का  दुलारा
यशोदा  की  आंखों  का  तारा  कन्हैया !

ज़रा  अपने  आंगन  में  उठ  कर  तो  आओ
वो  देखो,  वो  देखो
मचलता,  ठिठकता,  कभी  डगमगाता
न  जाने  कहां  से  ये  माखन  चुरा  के
हथेली  से  मुख  तक  सभी  अंग  साने
बड़े  ढीठपन  से
कभी  खिलखिलाता,  कभी  मुस्कुराता
चला  आ  रहा  है
हृदय  का  सहारा
हमारा  कन्हैया !

कोई  उसका  मुख,  हाथ-पांव  धुलाओ
ये  घुंघराली  अलकें  सहेजो-संवारो
मुकुट  मोरपंखी  धरो  शीश  पर
एक  छोटी  सी  दिठिया  लगाओ
फिर  हाथों  में  स्वर-धन्य  बंसी  थमाओ ….

ज़रा  यूं  सजाओ
कि  जब  वो  प्रकट  हो
तो  कहने  लगें
वृन्द-कानन  के  वासी
यही  है,  यही  है
हमारा  कन्हैया  !

हमारा  कन्हैया
तुम्हारा  कन्हैया  !

                                                       ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 


1 टिप्पणी:

Chaitanyaa Sharma ने कहा…

बहुत सुंदर कविता.. जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें ....