आकाश गंगा
आकाश  गंगा 
दिव्य  श्मशान 
तुम्हारे  तट  पर/ आलोकित  अरण्य  से 
आता  होगा / पुरखों  का  पगपथ 
अंतिम  लोक  परमधाम  तक 
नक्षत्रों 
मुहूर्त्त  तुम्हारी  किरणें 
शकुन  तुम्हारा  वरदान 
नीचे  धरती  पर 
ऋतुएं  फिरती  हैं / उनके  आश्रय  में 
उग  आती  हैं 
खपरैलें  घास-फूस  के  छप्पर 
जिस  पर  पुरखों  का  श्राद्ध  पाने 
आते  हैं  काग 
आस्था-विश्वास  के  रिश्ते  बुनता 
लोक  संसार  परिवार 
ऋतुओं  की  फेरी  के / हर  मोड़  पर 
खड़े  हैं  उत्सव  तीज-त्यौहार 
सजी  फसलें  बागान  और  खलिहान 
घर  का  बूढ़ा 
पुरखा  होने  की  दहलीज  पर 
घर  आते  जाते 
कल्पता  है 
खूँटे  से  बँधी 
'गऊ  दान'  की।
                                                       -हरीश  वाढेर 
*यह कविता श्री हरीश वाढेर के काव्य संग्रह 'बनी है पगडंडी अपने आप' से, सादर, साभार।
 
1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर कविता की प्रस्तुति,आभार.
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