सोमवार, 22 अप्रैल 2013

वह/ और शब्द/ और खटमल !

"मैं/ मैं हूं/ एक  साधारण  शरीर !
एक  जोड़ी  आंखें/ और  एक-एक  जोड़ी/ हाथों  और  पांवों  के  अलावा
सञ्चित  है  जिसमें/ पांच-साढ़े  पांच  किलोग्राम/ गाढ़ा-लाल  रक्त
अपने  ढाई-ढाई  फ़ीट  के  पैरों  पर/ दिन  भर/ लुढ़कता-पुढ़कता  मैं
अपने  सञ्चित  रक्त-कोष  की  रक्षा की/ कोशिश  को/ रखे  हुए हूं  बरक़रार !

शब्द/ शब्द  हैं/ किसी  भी  व्यक्तित्व  पर  चिपक  कर/ संज्ञा  बन  जाने  को  आतुर
चारों  ओर  भटकते  हुए/ ढूंढते  फिरते  अपना  शिकार !
पतले,  धारदार  शब्द/ मोटे,  भोथरे  शब्द/ गंदे,  लिजलिजे  शब्द ....
बच्चों-जैसे  मासूम/ फूल-जैसे  सुंदर/ और  बकरियों-जैसे/ निरीह  शब्द ...
और  'समय'  और  'भाग्य'-जैसे/ निहायत  सड़े-बुसे  शब्द 
जैसे  इनके  बिना/ चल  ही  नहीं  सकता/ आदमी  का  कार-बार !

और  हैं  खटमल !
फूले-फूले,  गुलगुले/ संतृप्त  खटमल/ और  सूखे-सुखाए/ बेजान-से/ भूखे-प्यासे  खटमल
बिस्तरों  में/ अलमारियों  में/ दीवारों  पर  उभर  आई  दरारों  में/ और  किताबों  के  पन्नों  में/
दुबके  हुए/ अपने  न  कुछ-से  शरीर  की/ भूख  मिटाने को/
करते  हुए  रात  का  इंतज़ार !

अनपेक्षित  शब्दों  की  भीड़  से  बच  कर/ अपनी  फ़ैक्टरी  तक  पहुंचने  के  लिए/ मैंने  ढूंढ  ली  है/
एक  संकरी-सी,  गुमनाम-सी  गली/ जिससे  या  तो  मैं  गुज़रता  हूं/
या  नगर-निगम  के  सफ़ाई-कर्मचारी !
शब्दों  को/ मूर्ख  बना  कर/ इस  गली  से/ इत्मीनान  से/ बच  निकलता  हूं  मैं/ हर  बार !"

..............................................

यह  बयान  जिस  आदमी  का  है/ वह  मारा  गया/ मेरे  सामने !
न  जाने  उन्हें  किसने  दी  थी  ख़बर/ और  वे/ गली  में  उसके  घुसते  ही/
चेंट  गए  थे  उसके  शरीर  से/ मोटे-मोटे  होंठों/ फूली  हुई  तोंदों/ और  दरांतियों-जैसे  दांतों  वाले/
खूंख्वार  शब्द/ और  उसके  छटपटाने  पर/ मुंह  खोल  कर  हंसने  वाले  शब्द ....
धीरे-धीरे/ घुसते  गए  थे  वे/ उसके  शरीर  में/ और  निचुड़  कर  आता  रहा  बाहर
गाढ़ा-गर्म  और  लाल-सुर्ख़  ख़ून !

शब्दों  के  उस  शरीर  से/ अलग  हो  चुकने  के  बाद/ मैंने  छुआ  उसे/ और  सहलाता  रहा/ कुछ  देर
उसने  शायद/ मुझे  अपना  दोस्त  समझा/ और  सौंप  दी  मुझे/ अपनी  डायरी/
जिसमें  लिखा  था  यह  सब/ और  यह  भी/ कि/ उसे/ अपने  खटमलों  से  है  प्यार !

वह/ मेरे  हाथों  में  मर  कर/  छोड़  गया  है  एक  प्रश्न/ कि  रात  के  आने  पर/ क्या  होगा/
उन  खटमलों  का  ? ? ? !

                                                                                                       ( 1978 )

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा', 1983

कोई टिप्पणी नहीं: